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________________ सुखी होने का उपाय ) (64 समस्या की जटिलता इसलिये भी बढ़ जाती है कि पूर्व मान्यतानुसार छह प्रकार के अनंतानंत द्रव्य समूह में मेरी "मेरेपने" की मान्यता वर्तती थी, उसमें से पूर्वकथित तर्क, आगम, युक्ति, अनुमान एवं स्वानुभव द्वारा मेरे निर्णय में ऐसा दृढ विश्वास जम गया है कि इन सब का जाननेवाला ऐसा जीव द्रव्य वह मैं हूं और ये सभी ज्ञेय तत्त्व मेरे से भिन्न होने से वे मैं नहीं हूं, वे उपेक्षा रूप से मेरे जानने में आते हुए मात्र परज्ञेय हैं। लेकिन अब कठिनता यह हैं कि जिसको मैंने "मैं" के रूप में विश्वास में लिया है उसमें भी अनेकता होने से मैंपना स्थापन करने में कठिनता उत्पन्न हो रही है, उसका समाधान कैसे हो ? भेदविज्ञान की महिमा इस समस्या के समाधान का उपाय आचार्य श्री अमृतचन्द्र देव ने समयसार के कलश १२९ - १३० - १३१ में निम्नानुसार वर्णन किया है : यह साक्षात् संवर वास्तव में शुद्ध आत्मतत्त्व की उपलब्धि से होता है और वह शुद्धात्म तत्त्व की उपलब्धि भेदविज्ञान से ही होती है, इसलिये वह भेदविज्ञान अत्यन्त भाने योग्य है ॥ १२९॥ यह भेदविज्ञान अच्छिन्न धारा से (जिसमें विच्छेद न पडे ऐसे अखण्ड प्रवाह रूप से) तब तक भाना चाहिये, जब तक ज्ञान परभावों से छूटकर ज्ञान - ज्ञान में ही (अपने स्वरूप में ही) स्थिर हो जावे १३० ॥ जो कोई सिद्ध हुए हैं, वे जो कोई बंधे हैं, वे उसी के से बंधे हैं ॥१३१॥ Jain Education International ॥ भेदविज्ञान से सिद्ध हुए हैं; ( भेदविज्ञान के ही) अभाव For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001863
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1998
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size6 MB
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