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________________ सुखी होने का उपाय) (54 निश्चितरूप से आत्मा के प्रत्यक्षीकरणपूर्वक पर्याय अभेद होकर अपनी अनुभूति में अपूर्व आनन्द प्रगट करे। यह असंभव है कि यथार्थ मार्ग एवं यथार्थ पुरुषार्थ के फल में आनन्द की अनुभूति प्रगट न हो। यह आनन्द अतीन्द्रिय आनन्द होने से अपूर्व ही जाति का होता है। यह आनन्द भगवान् अरहंत के आनन्द की ही जाति का है लेकिन अत्यल्प होता है, जो कि यथार्थ पुरुषार्थ के द्वारा बढ़ते-बढ़ते भगवान् अरहंत के रूप में पूर्ण हो जाता है। अतः जिस मार्ग के द्वारा एवं पुरुषार्थ द्वारा भगवान् अरहंत बना जा सकता है वह ही तो एकमात्र सच्चा वास्तविक मोक्षमार्ग हो सकता है, अन्य को कैसे यथार्थता प्राप्त हो सकती है ? निष्कर्ष यह है कि मार्ग के समझने में अत्यन्त सावधानी की आवश्यकता है। ऐसा न हो कि गलत मार्ग को सच्चा मार्ग मानकर उसके अनुसार पुरुषार्थ करते-करते सारा मनुष्यभव ही समाप्त हो जावे और यह भव छूटने के बाद पुनः सत्समागम एवं जिनवाणी के समागम का योग मिलना ही संदिग्ध होकर अनंत संसार का परिभ्रमण प्राप्त हो जावे । अतः पूर्ण सावधानीपूर्वक, विवेकपूर्वक, यथार्थ मार्ग को अपनी विवेक रूपी कसौटी से परखकर स्वीकार करके निर्णय करना चाहिये, यही एकमात्र कर्तव्य है। परसन्मुखता कैसे दूर हो ? यह तो हमारे अनुभव से स्पष्ट है कि जिस ओर कीं हमारी रुचि होती है, उपयोग उस ओर दौड़े बिना रहता ही नहीं है, हम चेष्टा करके भी उपयोग को उधर से हटाना चाहें तो भी हटता नहीं है और हट भी जावे तो पुनः - पुनः उस ओर ही दौड़ जाता है और जिसको अपना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001863
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1998
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size6 MB
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