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(सुखी होने का उपाय मानता है, उसकी सुरक्षा करने की, उसकी वृद्धि करने की, उसके बाधा पहुँचानेवाले कारणों को दूर करने आदि की रुचि उत्पन्न हुए बिना रहती ही नहीं है, साथ ही जिसको पर मान लेता है अर्थात् अपना नहीं मानता उस ओर की रुचि उत्पन्न होना तो दूर, वरन उसका सर्वस्व नाश हो जावे तो भी किंचित मात्र भी चिन्ता उत्पन्न नहीं होती है. यही प्राणिमात्र की सहज अनुभवसिद्ध स्थिति है। उपर्युक्त स्थिति से यह स्पष्ट है कि इस जीव ने अभी तक अपने निज आत्मा रूपी स्वज्ञेय को, जो स्वज्ञेय भी है तथा ज्ञान भी है, उसमें कभी भी अपनापन स्थापन नहीं किया है और परज्ञेय जो अपने से स्पष्टरूप से भिन्न हैं, किसी प्रकार भी अपने नहीं है और न कभी भी अपने हो सकते हैं, उन्हीं में अपनापन स्थापन कर रखा है अर्थात् उन्हीं को मैंने अपना मान रखा है, इस ही के फलस्वरूप मेरी रुचि परज्ञेयों के रक्षण, वृद्धि आदि की ओर निरन्तर दौड़ती रहती है और यही कारण है कि परसन्मुखता कभी भी दूर हुई ही नहीं है और जब तक परज्ञेयों में आत्मबुद्धि अर्थात् अपनापन रहेगा, तबतक परसन्मुखता कभी दूर नहीं हो सकती और स्वज्ञेय अर्थात् अपना स्व आत्मा की सन्मुखता होना कभी भी संभव नहीं हो सकता।
निष्कर्ष यह है कि अपनी पर्याय की परसन्मुखता दूर करके स्वसन्मुखता करनी हो तो एकमात्र स्वआत्मा में ही जो कि अपना ही है, कभी भी पर मानें तो भी पर नहीं हो सकता, उसमें आत्मबुद्धि अर्थात् अपनापन प्रगट करे, यह ही एकमात्र उपाय है, पर्याय को स्वसन्मुख करने का; अन्य कोई उपाय ही नहीं है। पर्याय की स्वसन्मुखता हुये बिना स्व आत्मा के मिलन का अर्थात् स्वात्मानुभव का अन्य कोई उपाय है नहीं तथा हो सकता भी नहीं।
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