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(सुखी होने का उपाय एवं समझता है व उन सबके प्रति समझने का श्रम करते हुए भी रुकने के लिए किंचित् मात्र भी उत्साह नहीं बर्तने से उन सबको प्राप्त होते ही छोड़ता हुआ आगे बढ़ता हुआ चला जाता है, उसमें अटकने के लिए किंचित्मात्र भी प्रयास तो नहीं करता वरन् अत्यन्त उत्साहहीन रहता है, अतः अगर कोई साथी अटकने की चेष्टा भी करे तो उसका भी निषेध कर आगे चलने के लिए उसे भी प्रोत्साहित करता है।
स्वज्ञेय को खोजने की पद्धति ठीक इसीप्रकार अर्थात् उक्त दृष्टान्त के अनुसार आत्मार्थी जीव को भी "स्वज्ञेयतत्त्व" अर्थात् स्वआत्मद्रव्य जिसको अनादिकाल से भूला हुआ है और वह लोकालोक के अनंतानंत ज्ञेयद्रव्यों में खोया हुआ है, ऐसे उस स्वजनरूपी स्वज्ञेय को खोजने के लिए भी उपर्युक्त दृष्टान्त की पद्धति ही अपनानी होगी।
प्रवचनसार गाथा १४५ की टीका में कहा है किइसप्रकार जिन्हें प्रदेश का सद्भाव फलित हुआ है ऐसे आकाश पदार्थ से लेकर काल पदार्थ तक के सभी पदार्थों से समाप्ति को प्राप्त जो समस्त लोक है, उसे वास्तव में उसमें अंतःपाती होने पर भी अचिन्त्य ऐसी स्व-पर को जानने की शक्तिरूप सम्पदा के द्वारा जीव ही जानता है, दूसरा कोई नहीं, इसप्रकार शेष द्रव्य ज्ञेय ही हैं, और जीवद्रव्य तो ज्ञेय तथा ज्ञान हैं, इसप्रकार ज्ञान-ज्ञेय का विभाग है।
सर्वप्रथम इस लोकालोक में विस्तरित अनंतानंत ज्ञेय द्रव्यों में अनादिकाल से खोये हुये निज आत्मद्रव्य रूपी स्वजन
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