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सुखी होने का उपाय )
श्रीमद् राजचंद्रजी ने भी कहा है
"काम एक आत्मार्थनो, बीजों नहिं मनरोग" आदि-आदि।
तथा
" कषायनीं उपशांतता मात्र मोक्ष भवे खेद प्राणीदया त्यां आत्मार्थ
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अभिलाषा । निवास ॥ "
त्याग विराग न चित्तमा, थाय न तेने ज्ञान । अटके त्याग विरागमां, तो भूले निज
भान ॥ "
उपर्युक्त भावना जाग्रत होने पर वह जीव बाहर में सबकुछ जैसा का तैसा बना रहते हुए भी अन्तर की रुचि का वेग पलट लेता है, अबतक जिनके रक्षण एवं वृद्धि आदि के प्रति उत्साह वर्तता था, वह ढीला पड़ जाता है, अपने आत्मा के कल्याण का उपाय जो निज आत्मतत्त्व अनुसंधान आदि में अपनी वृत्ति को लगा देता है। अपने आत्मा में ही अपनापन स्थापन करते हुए पर, जिनमें अबतक अपनापन माने हुए था, उनमें परपना किस प्रकार निर्णय में आवे, ऐसा निर्णय प्राप्त करने के लिये तीव्रतम रुचि के साथ पूर्ण पुरुषार्थ के साथ प्रयत्नशील हो
जाता है।
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निर्णय का विषय क्या हो ?
उपर्युक्त भावनावाले जीव की पात्रता इतनी उग्र हो गई होती है कि वह जीव तत्त्वोपदेश को ग्रहण करने के लिये इन्द्रियविषयों की ओर बाहर भटकती हुई अपनी बुद्धि को सब ओर से समेट कर, एकाग्रता एवं आतुरता के साथ तत्त्वोपदेश को विनयपूर्वक दत्तचित्त होकर ग्रहण करता है, धारण करता है एवं उस पर गंभीरता से विचार करने में प्रयत्नशील होता है।
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