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________________ (सुखी होने का उपाय उपर्युक्त भावना सहित निर्णय करने के सन्मुख हुआ जीव, उपदेश को सुनकर उसमें सर्वप्रथम प्रयोजन की सिद्धि के लिये उपयोगी एवं तत्काल उपयोगी नहीं होनेवाले कथनों को छांटता है। जैसे उपदेश में तो चारों अनुयोगों में कथन तो अनेक अपेक्षाओं को लेकर विस्तार से आते हैं। उनके संबंध में वह विचारता है कि मेरी आयु तो अल्प है, बुद्धि भी सीमित है और उपदेश के प्रकार तो बहुत है। सबका धारण करना तो संभव नहीं है। अतः मुझे इन सबमें से मेरे प्रयोजन की सिद्धि के लिये विशेष उपयोगी हों उनको पहले धारण करना चाहिए। पद्मनंदी पंचविंशतिका के श्लोक १/१२८ में भी कहा है किवर्तमान काल में मनुष्यों की आयु अल्प बुद्धि अतिशय मंद, इस कारण समस्त श्रुतपाठ की शक्ति रही नहीं, अतः उनको उतने ही श्रुत का प्रयत्नपूर्वक अभ्यास करना चाहिये, जो मोक्ष का बीजभूत होकर आत्महित करनेवाला हो । ११ श्री कविवर भूधरदासजी ने भी कहा है कि 29) " जीवन अलप आयु बुद्धि बलहीन, तामें आगम अगा सिंधु कैसे ताहि डाकि है ?" " आत्मार्थी की उपर्युक्त समस्या को सुलझाने के लिए पं. टोडरमलजी ने मोक्षमार्ग प्रकाशक में निम्नप्रकार स्पष्टीकरण किया है। पृष्ठ ६ पर आत्मार्थी जीव का प्रयोजन क्या है? यह स्पष्ट किया है कि जिसके द्वारा सुख उत्पन्न हो तथा दुःख का विनाश हो, उस कार्य का नाम प्रयोजन है; और जिसके द्वारा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001863
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1998
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size6 MB
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