SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 37
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 19) (सुखी होने का उपाय ज्ञेयों के प्रति अत्यन्त उपेक्षा जाग्रत कर अपने उपयोग को अपने आप में लीन कर दिया। फलस्वरूप अन्दर उठनेवाले रागादिक का अभाव होकर परम वीतरागता प्राप्त की। उसी के फलस्वरूप उनका ज्ञान भी पूर्ण हो गया, अतः परम सख का निरन्तर भोग कर रहे हैं। उपरोक्त दृष्टान्त के आधार पर विश्वास जाग्रत होता है कि मार्ग तो वही सच्चा है, जिसके अनुसरण करने से रागादिक का अभाव होकर वीतरागता की प्राप्ति हो। हमारा प्रयोजन भी तो आकुलता रूप दुःख का अभाव करके निराकुलता रूपी सुख उत्पन्न करना है। अतः जो उपदेश रागादि के अभाव करने का उपाय बतावे, एकमात्र वह उपदेश ही सत्यार्थ हो सकता है। इसी आधार पर यथार्थ उपदेश मिलने पर भी हमारे निर्णय में यह प्रमाणित हो कि इस उपदेश को इस प्रकार समझकर ग्रहण करने से रागादि की हानि और वीतरागता की उत्पत्ति होगी तो समझ लेना चाहिए कि मेरा निर्णय यथार्थ है तथा निःशंक होकर तदनुसार उसकी साधना करने का पुरुषार्थ करना चाहिए। संक्षेप में कहो तो सारी द्वादशांग वाणी का तात्पर्य एकमात्र वीतरागता है, सारी द्वादशांग वाणी एकमात्र वीतरागता का ही प्रतिपादन करती है, अतः किसी भी अनुयोग के किसी भी ग्रन्थ का अध्ययन किया जावे, अध्ययनकर्ता को उससे एकमात्र वीतरागता का ही पोषण होना चाहिए। यही एकमात्र अपने अध्ययन को एवं निर्णय को परखने के लिए उत्कृष्ट कसौटी है। आत्मार्थी को सदैव उस कसौटी को बुद्धि में जाग्रत रखकर आगम का अध्ययन करना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001863
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1998
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy