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________________ (18 सुखी होने का उपाय) यथार्थ देशना प्राप्त करके भी निर्णय की । यथार्थता कैसे समझी जावे ? उक्त प्रश्न के उत्तर स्वरूप निर्णय की यथार्थता अथवा अयथार्थता का मापदंड आचार्य श्री अमृतचंद्रदेव ने पंचास्तिकाय ग्रंथ की गाथा १७२ की टीका में निम्नप्रकार दिया है: "अलं अति विस्तरेण, स्वास्ति साक्षान्मोक्षमार्गसारत्वेन शास्त्रतात्पर्यभताय वीतरागत्वायेति द्रिविध किल तात्पर्यम्-सूत्रतात्पर्य शास्त्रतात्पर्य चेति। तत्र सूत्रतात्पर्य प्रति सूत्रमेव प्रतिपादितम् ।" अर्थ :- विस्तार से बस हो। जयवंत वर्ते वीतरागता जो कि साक्षात् मोक्षमार्ग का सार होने से शास्त्र तात्पर्यभूत है। तात्पर्य द्विविध होता है - सूत्रतात्पर्य और शास्त्रतात्पर्य। उसमें सूत्रतात्पर्य प्रत्येक सूत्र (गाथा) में प्रतिपादित किया गया है। उपर्युक्त मापदंड के आधार पर आत्मार्थी जीव को अपने निर्णय को हमेशा अपनी ही बुद्धिरूपी कसौटी पर हमेशा परखते रहना चाहिए कि मेरा निर्णय वीतरागता का उत्पादक है अथवा नहीं। इसका दृष्टान्त है - भगवान अरहंत का आत्मा। भगवान अरहंत का आत्मा भी पूर्वदशा में राग-द्वेष आदि के सद्भाव में आकुलता के वेदन के कारण निरन्तर दुःखी था। उनकी आत्मा ने भी यथार्थ देशना प्राप्त कर अपने ज्ञायकस्वभावी अकर्ता आत्मा का यथार्थ निर्णय कर, उस उपदेश के अनुसार अपने आत्मा में तद्रूप परिणमन कर, उसके फलस्वरूप आत्मा के उपयोग में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001863
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1998
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size6 MB
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