________________ 117) (सुखी होने का उपाय रहता है, उसके उपयोग को अन्य कोई शरणभूत ही नहीं रह जाता है। अतः जावे तो जावे कहाँ? ऐसी दशा प्राप्त ज्ञानी का उपयोग सर्व गुणों के साथ आत्मा से सम्मिलन प्राप्त कर आत्मानंद का उपभोग कर कृतकृत्य हो जाता है। मेरे में ऐसा दृढ़तम विश्वास जाग्रत हो कि उपरोक्त मार्ग ही यथार्थ है, इसी मार्ग द्वारा मुझे भी आत्मोपलब्धि हो सकेगी। उस मार्ग को ही इस पुस्तक के माध्यम से अनेक आगम, न्याय, युक्ति एवं अपने में आते हुए अनुभव के माध्यम से यथार्थ अनुमान द्वारा पक्का निर्णय कराने का प्रयास किया गया है। आत्मार्थी ऐसा विचार करता है कि अनंत काल से संसारपरिभ्रमण का कारण एवं अपनी आत्मा में उठनेवाली राग-द्वेष संबंधी अशांति का कारण, एकमात्र स्वआत्मतत्त्व को भूलना है। तथा परज्ञेय जो अत्यन्त उपेक्षणीय हैं, उनको अपने मान लेना है, फलस्वरूप उनके रक्षण आदि का प्रयास करते-करते तथा असफलता प्राप्त करते हुए अत्यन्त दुःखी-दुःखी ही बना रहता हैं। लेकिन मुझे अब एक क्षण भी निरर्थक नहीं खोना है। यहाँ मुझे स्व के स्वरूप एवं पर के स्वरूप समझने की अनुकूलता प्राप्त हुई है, तो मुझे पूर्ण मनोयोगपूर्वक इस मार्ग को समझना ही है। ऐसी जिज्ञासा प्राप्त आत्मार्थी इस पुस्तक के विषय को मनोयगपूर्वक हृदयंगम कर यथार्थ निर्णय को प्राप्त होता है। और ऐसा मान लेना है की मार्ग तो यही है और मुझे भी ऐसा ही भासित होता है। इस ही मार्ग पर चलने से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org