________________ सुखी होने का उपाय) (116 उन ज्ञान के आकारों को ही आत्मा जानता है। ज्ञेयों का तो वहाँ अंश भी नहीं है। अतः आत्मा की जाननक्रिया स्वसन्मुखतापूर्वक पर संबंधी स्वज्ञानाकारों को ही जानती है। इस अपेक्षा से ही आत्मा के ज्ञान को स्वपरप्रकाशी कहा जाता है। उन ज्ञेयाकार रूप स्वज्ञानाकारों को जानते समय ज्ञानी तो एक मात्र त्रिकाली ज्ञायकभाव में स्वपना होने से इन ज्ञेयाकारों के प्रति परपना अत्यन्त उपेक्षाबुद्धि से जानता है। फलतः वीतरागता को प्राप्त करता है। अज्ञानी उन ही ज्ञेयाकारों को जानते समय, आत्मतत्त्व के अज्ञान के कारण, उन ज्ञेयाकारों एवं उनके विषयों के प्रति मेरापना मानने से रागी-द्वेषी होकर निरन्तर दुःखी एवं रागी बना रहकर संसार बढ़ाता रहता है। (3) ज्ञानी को अपने त्रिकालीभाव में अहंपना बना रहने पर भी उसके ज्ञान में परज्ञेय तरीके अपनी पर्याय की अनेक प्रकार की विविधताएँ ज्ञान के जानने में आती हैं। उन सबको वह पर्याय स्वभाव जानकर अर्थात् पयार्य भी एक समय का सत् है, स्वतंत्र एवं निरपेक्ष है, उसको तो इस समय इस ही प्रकार परिणमना था, वैसा ही परिणमा है। उस को इस ही प्रकार परिणमने की योग्यता थी। दूसरी ओर मेरे ज्ञानगुण की इस समय की पर्याय की योग्यता ही ऐसी है कि स्व को जानते हुए परज्ञेय में यह पर्याय ही ज्ञान में ज्ञेय बन सकती थी, इसलिये यह पर्याय ज्ञेय बनी है। ऐसी श्रद्धा के द्वारा अपनी पर्याय का कर्तव्य भी समाप्त होकर अत्यन्त अकर्ता होता हुआ निर्भार वर्तता ऐसे जगत् के कर्तव्य से निर्भार ज्ञानी का उपयोग एकमात्र स्वज्ञायकतत्त्व में ही विश्राम पाने के लिये उत्सुक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org