________________ 115) (सुखी होने का उपाय तथा विकारी निर्विकारी पर्यायों की अनेकता आदि, अनेक प्रकार के पलटते हुए भावों के ही दर्शन होते हैं। उन पलटते हुए भावों की भीड़-भाड़ में, स्थाई त्रिकालीभाव तो कहीं दिखाई ही नहीं देता। अतः उन सबमें से स्व आत्मतत्त्व को खोजकर निकालने की पद्धति समझने का इस दूसरे भाग का मुख्य उद्देश्य है। इसमें आये हुए विषयों की जानकारी विषयसूची में है ही। अतः उनको इसमें दोहराने की आवश्यकता नहीं है। आत्मार्थी को सूची के अनुसार सभी विषयों को मनोयोगपूर्वक समझकर, अपने त्रिकाली ज्ञायकतत्त्व में अहंपना स्थापन कर लेना चाहिये तथा अन्य सभी में परपना स्थापन कर उनको उपेक्षायोग्य मानकर उनके प्रति उत्साहहीन हो जाना चाहिए। ऐसे यथार्थ निर्णय के द्वारा दृढ़तम श्रद्धा जाग्रत होनी चाहिए कि (1) मेरा अस्तित्त्व है, वह तो एकमात्र त्रिकाली ज्ञायक ध्रुव तत्त्व ही "मैं" हैं। अन्य जो कुछ भी ज्ञान में जानने में आते हैं वे सब "मैं नहीं, "मेरे" नहीं हैं। मात्र मेरे लिये परज्ञेय तरीके ज्ञान में आ जाते हैं। अतः वे अत्यन्त उपेक्षणीय है। जो जानने के लिये भी उपेक्षणीय हो, उनमें कुछ करने-धरने का तो प्रश्न ही नहीं रहता इसलिए मैं तो सबका अकर्ता हैं। (2) मेरा स्वभाव जानना मात्र ही नहीं, बल्कि मात्र स्व को जानने का ही स्वभाव है। स्वसन्मुख होकर ही जानने का स्वभाव है। क्योंकि आत्मद्रव्य स्वक्षेत्र में रहकर ही जो जानन क्रिया करेगा। पर का तो स्व में अभाव है। अतः पर को जानेगा कैसे? लेकिन ज्ञान की स्वपरप्रकाशक शक्ति होने से तथा ज्ञेय द्रव्यों में प्रमेयत्वगुण होने से, उन ज्ञेयों के आकार, आत्मा के ज्ञान में स्वतः झलकने लगते हैं। अर्थात आत्मा का ज्ञान ही स्वयं ज्ञेयाकाररूप हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org