________________ 111) (सुखी होने का उपाय स्याद्वाद का प्रयोग भी अभेद वस्तु को समझाने के लिए ही है। वस्तु तो अनंत गुणों के समूह रूप अनेकांतात्मक एक है। वस्तुस्वरूप ही ऐसा है कि उसको भेद करके ही समझाया जा सकता है। सब गुण एक साथ बताये नहीं जा सकते। इसलिये ज्ञान में उसी वस्तु के अन्य गुण होने पर भी समझाने के लिये एक को मुख्य करके अन्य को गौण करना अनिवार्य हो जाता है। अतः स्याद्वाद का उपयोग भी अनिवार्य हो जाता है। इसप्रकार अभेद वस्तु में अन्य गुण भी विद्यमान है, यह समझाने के लिये "भी" शब्द का प्रयोग स्याद्वाद का सूचक है। जैसे आत्मा में ज्ञान भी है, चारित्र भी है, सुख भी है, श्रद्धा भी है, आदि-आदि। स्याद्वाद का दूसरा प्रयोग "ही" के रूप में भी किया जाता है। जहाँ वस्तु में बसे हुए अनन्त गुणों में से अथवा पर्याय की स्वतंत्र एवं निरपेक्ष सत्ता सिद्ध करनी हो, वहाँ पर "ही" शब्द का प्रयोग स्याद्वाद का ही सूचक है। जैसे ज्ञानगुण, श्रद्धागुण नहीं है; श्रद्धागुण, ज्ञानगुण नहीं है ज्ञान ज्ञान ही है; श्रद्धा श्रद्धा ही है; आदि-आदि।। इसीप्रकार जब एक द्रव्य को अन्य दव्य से भिन्न सिद्ध करना हो, तो भी "ही" शब्द के द्वारा भिन्नता सिद्ध की जाती है। जैसे जीव जीव ही है, अजीव नहीं; अजीव अजीव ही है, जीव नहीं; आदि-आदि। तात्पर्य यह है कि "ही" शब्द के द्वारा भी, तथा "भी" शब्द के द्वारा भी, एकमात्र वस्तुस्वरूप को ही सिद्ध करने का, समझाने का उद्देश्य है। जिनवाणी के सब कथनों का तात्पर्य तो एकमात्र वीतरागता है। अतः "ही" के द्वारा . अन्य द्रव्यों से अपने-आपको भिन्न करके, पर से संबंध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org