________________ (112 सुखी होने का उपाय) तोड़कर, वीतरागता प्राप्त कराने का प्रयोजन है। तथा "भी" के प्रयोग द्वारा अपने अंदर बसनेवाले अनंत गुणों के कार्य एक साथ, होते हुए भी, एक-दूसरे के आधीन नहीं होकर, अपना-अपना कार्य निरपेक्ष रूप से करते रहते हैं। ऐसी निःशंकता एवं दृढ़ता उत्पन्न कराकर वीतरागता उत्पन्न कराने का प्रयोजन है। स्याद्वाद एवं अनेकांत का स्वरूप बताते हुए आचार्य अमृतचन्द्रदेव आत्मख्याति टीका के परिशिष्ट में कहते हैं "स्याद्वाद समस्त वस्तुओं के स्वरूप को सिद्ध करनेवाला अर्हन्त सर्वज्ञ का अस्खलित (निर्बाध) शासन है। वह कहता है कि अनेकांत स्वभावी होने से सब वस्तुएँ अनेकान्तात्मक है। जो वस्तु सत् है वही असत् है; आदि-आदि....। इसप्रकार एक वस्तु में वस्तुत्व की उत्पादक परस्पर विरुद्ध दो शक्तियों का प्रकाशित होना अनेकान्त है।" इसप्रकार परस्पर विरुद्ध प्रतीत होनेवाले अनेक युगलों (जोड़ों) को स्याद्वाद अपनी सापेक्ष शैली से प्रतिपादन करता है। स्याद्वाद का सूचक स्यात् पद का ठीक-ठीक अर्थ लगाना चाहिये। इसके सम्बन्ध में बहुत भ्रम प्रचलित है। कोई स्यात् का अर्थ संशय करते हैं, कोई शायद, तो कोई संभावना; आदि-आदि। इसतरह स्याद्वाद को संशयवाद, शायदवाद या संभावनावाद बना देते हैं। लेकिन स्याद्वाद तो संदेह का वाचक न होकर एक निश्चित अपेक्षा का वाचक है। इसीप्रकार कुछ अज्ञानी ऐसा कहते हैं कि स्याद्धाद शैली में मात्र "भी का ही प्रयोग है "ही" का नहीं। उन्हें "भी" में समन्वय की सुगंध और "ही" में हठ की दुर्गन्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org