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________________ 107) (सुखी होने का उपाय है, अन्य सभी द्रव्य अपने ज्ञान में आते हुए भी गौण कर उपेक्षा करने से ही वीतरागता का प्रयोजन सिद्ध होगा। अतः उनको व्यवहार कहकर हेय कहा जाता है। जब विकारी भावों का कर्तृत्व छुड़ाना होता है तो ज्ञानक्रिया आत्मा की स्वभावभूत क्रिया है, अतः उसको मुख्य करके निश्चय कहा जाता है। और पहले जिसको मुख्य और निश्चय बनाया था। उसी विकारी दशा को गौण कर उपेक्षणीय मानकर व्यवहार कह दिया जाता है और छोड़ने योग्य माना जाता है, जब पर्यायमात्र का कर्तव्य छडाना हो, तब त्रिकाली को मख्य करके निश्चय कहा जाता है और ज्ञान क्रिया भी गौण एवं व्यवहार होकर उपेक्षणीय हो जाती है। इसीप्रकार अन्यत्र भी समझना। आलापपद्धति में निश्चय एवं व्यवहारनय का स्वरूप निम्न प्रकार दिया है अभेदानुपचरितया वस्तु निश्चयत इति निश्चयः। भेदोपचारतया वस्तु व्यवहयत इति व्यवहारः // अर्थ- अभेद और अनुपचार रूप से वस्तु का निश्चय करना निश्चय है और भेद तथा उपचार रूप से वस्तु का व्यवहार करना व्यवहार है। इन निश्चय-व्यवहार नयों के भी वक्ता एवं ज्ञान के अभिप्राय अनुसार अनेक भेद पड़ जाते हैं। व्यवहारनय के जो भेद पड़ते हैं, उनमें आत्मपरिणामों के साथ जो संबंध रखते हैं, उनको विषय बनानेवाली पर्याय को साधारणतया सद्भूत कहते है तथा जो आत्मपरिणामों से संबंध नहीं रखते ऐसे विषयों को जाननेवाली पर्याय को असद्भुत कहते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001863
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1998
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size6 MB
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