________________ (106 * सुखी होने का उपाय) उत्पाद-व्यय रूप पर्याय है। लेकिन उस पर्याय से संबंधित जितने भी पदार्थ हैं, वे भी सब इसी नय के विषय होते है। तथा इस जीव की शरीर से संबंधित असमानजातीय पर्याय आदि तथा वक्ता अभेद द्रव्य में भेद करके भेदों को जाने तो वे सब भी पर्यायार्थिकनय के विषय होते है। सारांश यह है कि एक अकेले त्रिकाली द्रव्य के अतिरिक्त जो कुछ भी ज्ञान के विषय बनते हैं, वे सब पर्यायार्थिकनय के विषय ही होते हैं। इसप्रकार पर्यायार्थिकनय का बहुत बड़ा विस्तार हो जाता है और विषयों की मुख्यता से पर्यायार्थिकनय के भी अनेक भेद हो जाते हैं। लेकिन गुणों को द्रव्यों से अभेद करके द्रव्य को विषय बनावे तो वही द्रव्यार्थिकनय का विषय हो जाता है। और भेद करके गुणों को विषय बनावे तो पर्यायार्थिकनय हो जाता है। नयों का प्रयोग मूलतः वक्ता अथवा ज्ञाता के अभिप्राय अनुसार होता है। निश्चयनय-व्यवहारनय- ये दोनों नय अध्यात्म के ही नय है। इन नयों में प्रयोजन मुख्य रहता है, वस्तु मुख्य नहीं रहती। प्रयोजन तो एक मात्र वीतरागता है। उसकी सिद्धि के लिये जिस विषय को मुख्य बनाता है, वहीं प्रयोजनभूत होने के कारण निश्चय होता है और उसको जाननेवाली पर्याय को निश्चयनय कहते हैं। इससे अतिरिक्त जो भी विषय रह जाते हैं, वे सब उससमय गौण हो जाते है तथा उपेक्षणीय होने से सब व्यवहार हैं। उनको जाननेवाली पर्याय व्यवहार नय कही गई है। जैसे अनादि काल से चली आ रही परद्रव्यों के साथ एकत्वबुद्धि, कर्तृत्वबुद्धि का अभाव करने के प्रयोजनवश विकारी निर्विकारी पर्यायों सहित निज आत्मा मुख्य होता है तो वह निश्चय और इसको जाननेवाली पर्याय निश्चय नय कहलाती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org