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________________ 105) (सुखी होने का उपाय श्रद्धा में नहीं जागी, तबतक पर द्रव्यों के प्रति कर्ताबुद्धि छुट नहीं सकती। उसके बिना अध्यात्म में प्रवेश असंभव है। जबतक ऐसी श्रद्धा जाग्रत नहीं हो कि जगत में अकेला स्वआत्मा मैं ही हूँ, मेरी अपेक्षा मेरे तरीके किसी का अस्तित्त्व ही नहीं है। इसप्रकार सारे जगत् से संबंध तोड़कर अकेले अपने आत्मा में अनुसंधान करता है। तब सर्वप्रथम द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिकनय का स्वरूप समझना आवश्यक हो जाता है। द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक नय की परिभाषा समयसार गाथा 13 की टीका में निम्नप्रकार से दी है: "तत्र द्रव्यपर्यायात्मके वस्तुनि द्रव्यं मुख्यतयानुभावयतीति द्रव्यार्थिकः, पर्यायं मुख्यतयानुभावयतीति पर्यायार्थिकः।" ___ अर्थ- द्रव्य-पर्यायस्वरूप वस्तु में जो मुख्यरूप से द्रव्य का अनुभव कराये, वह द्रव्यार्थिकनय है और जो मुख्यरूप से पर्याय का अनुभव कराये, वह पर्यायार्थिक नय है। यहां अनुभव का अर्थ ज्ञान समझना / / जब ज्ञान का विषय द्रव्य हो तो द्रव्य की अनेक अवस्थाओं की अपेक्षा अनेक भेद पड़ जाते हैं। जैसे विकारी द्रव्य, अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय का विषय; शुद्ध द्रव्य, शुद्ध द्रव्यार्थिक का विषय आदि-आदि अनेक भेद पड़ जाते हैं। वक्ता अथवा साधक के अभिप्राय अनुसार द्रव्य को जिस रूप में ज्ञान का विषय बनाया जावे, उस को उसी नाम से कह दिया जाता है। इसप्रकार नय के अनेक नाम पड़ जाते है। इसीप्रकार पर्यायार्थिकनय को भी जानना चाहिये। लेकिन पर्यायार्थिकनय का विस्तार द्रव्यार्थिकनय से भी बहुत ज्यादा है। पर्यायार्थिक का मुख्य विषय तो एक समयवर्ती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001863
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1998
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size6 MB
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