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________________ सुखी होने का उपाय) (104 काल में तो नयादि के विकल्प भी सब विलय हो जाते है। लेकिन उससे पूर्व आवश्यक भी है। नयचक्र की गाथा 68 में कहा भी है "तच्चाणेसणकाले समय बुझेहि जुत्तिमग्गेण। ___णो आराहणसमये पच्चक्खो अणुहवो जह्या" अर्थ- तत्त्वान्वेषण-काल में ही आत्मा युक्तिमार्ग से अर्थात् निश्चय-व्यवहार नयों द्वारा जाना जाता है, परन्तु आत्मा की आराधना के समय वे विकल्प नहीं होते, क्योंकि उस समय तो आत्मा स्वयं प्रत्यक्ष ही है। नयों के भेद-प्रभेद आगम के मुख्य नयः- नैगम, संग्रह, व्यवहार- ये तीनों नय द्रव्यार्थिकनय के हैं। ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़, एवंभूतये चारों नय पर्यायार्थिकनय के हैं। उपरोक्त नयों में द्रव्यार्थिकनय एवं पर्यायार्थिकनय मात्र एक आत्मद्रव्य की अपेक्षा नहीं समझना। आगम के नयों का कथन समस्त द्रव्यों की अपेक्षा से किया जाता है। उनका विषय समस्त द्रव्य व उनकी पर्यायें होती हैं। आगम के नयों में आये व्यवहारनय का अर्थ अध्यात्म के व्यवहारनय से नहीं लगाना। आगम के व्यवहारनय का विषय अभेदरूप गृहीत वस्तुओं का परमाणु पर्यन्त भेद करना है। विशेष जानकारी के लिए "परमभावप्रकाशक नयचक्र' का अध्ययन करे। __ अध्यात्मनय- अध्यात्म में प्रवेश करने से पूर्व द्रव्य, गुण, पर्याय का स्वरूप विस्तारपूर्वक समझना अत्यन्त आवश्यक है। जबतक "उत्पाद्व्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' के माध्यम से जगत् के सभी द्रव्यों की व उनकी हर एक पर्याय की स्वतंत्रता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001863
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1998
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size6 MB
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