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वस्तु स्वभाव एवं विश्व व्यवस्था ]
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इसप्रकार उपरोक्त आगम वाक्यों से स्पष्ट है कि अपने विकार का उत्पादक कर्म को मानना तो उल्टी मान्यता है, इसप्रकार की मान्यता से आप स्वच्छन्दता का पोषण करना चाहता है । लौकिक में भी ऐसा माना जाता है कि अपराध करने वाले को, अपराध छुड़ाने के लिए, सबसे पहले उसको अपराध की स्वीकृति कराई जाती है.और स्वीकार कर लेने के बाद ही, वह भविष्य में ऐसा अपराध नहीं करेगा- यह विश्वास किया जा सकता है। तो क्या उसके भी विपरीत, धर्मशास्त्र ऐसी आज्ञा देगा कि क्रोधादि विकारी भाव तो आत्मा स्वयं करे और उसकी जिम्मेदारी आत्मा की नहीं होकर कर्म की है ? इसका अर्थ यह हुआ कि आत्मा तो क्रोधादि भावों को कम-ज्यादा अथवा अभाव कर ही नहीं सकेगा, उससे तो लोक में बुरे भाव छोड़ने का और अच्छे भाव करने का उपदेश निरर्थक सिद्ध हो जावेगा ? और जिनवाणी का उपदेश भी रागादि भावों के बढ़ानेवाला सिद्ध होगा? जो कि असंभव है, क्योंकि आत्मशुद्धि का मार्ग तो एकमात्र वीतरागता है।
इससे यह भी सिद्ध होगा कि कर्म का जब-जब उदय आवेगा तब-तब आत्मा को विकार करना ही पड़ेगा? लेकिन ऐसा उपरोक्त कथनों का अभिप्राय नहीं है। उल्टी मान्यता के कारण, इसकी आदत पड़ी हुई है कि अपराध तो स्वयं करता है और दूसरे के सिर थोपने के लिये किसी कर्म को या नोकर्म को कारण बताकर, अपने आप को निरपराधी बताता व सिद्ध करता रहता है। जैसे किसी के गाली देने पर क्रोध तो आप करते हैं, और अपराध गाली देने वाले को मानकर उस पर क्रोध करता है । उसीप्रकार शास्त्र पढ़कर शास्त्र के कथनों को अपनी उल्टी मान्यता दृढ़ करने के लिये उल्टा अर्थ निकालता रहता है।
उक्त कथनों का यथार्थ अभिप्राय क्या है ?
उत्तर :- जीव जब स्वयं विकारी भाव करता है, उस समय विकारी भावरूप कार्य तो जीव ने ही किया है। अत: यथार्थ कारण तो
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