SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 90
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८८] [सुखी होने का उपाय कोऊ दरव काहू को न प्रेरक कदापि तातें, रागदोष मोह मृषा मदिरा अचौन है॥ ६९॥ फिर कहते हैं कि : कोऊ मूरख यों कहै रागदोष परिनाम, पुग्गल की जोरावरी बरतै आतमराम ।। ६२ ।। ज्यों-ज्यों पुग्गल बल करै, धरि-धरि कर्म जुभेष, रागदोष को परिनमन त्यों-त्यों होई विशेष ॥ ६३ ॥ इह विधि जो विपरीत पख गहै सहहै कोड़ सो नर राग विरोध सौं कबहूँ भिन्न न होई ॥१४॥ सुगुरु कहै जगमैं रहे पुग्गल संग सदीव, सहज सुद्ध परिनमन का, औसर लहै न जीव ।। ६५ ॥ तातै चिद्भावनिविर्षे, समरथ चेतनराव, रागविरोध मिथ्यातमैं, समकित में सिवभाव ।। ६६ ।। पंडित टोडरमलजी ने भी मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ ३११ पर उपरोक्त विवेचन का ही समर्थन किया है :___“यहाँ यह प्रश्न है कि - द्रव्यकर्म के उदय से भावकर्म होता है, भावकर्म से द्रव्यकर्म का बंध होता है, तथा फिर उसके उदय से भावकर्म होता है- इसीप्रकार अनादि से परम्परा है, तब मोक्ष का उपाय कैसे हो? समाधान :- कर्म का बंध उदय सदाकाल समान ही होता रहे तब तो ऐसा ही है; परन्तु परिणामों के निमित्त से पूर्वबद्ध कर्म के भी उत्कर्षण-अपकर्षण-संक्रमणादि होने से उनकी शक्ति हीनाधिक होती है, इसलिये उनका उदय भी मंद-तीव्र होता है। और तत्त्वनिर्णय न करने में किसी कर्म का दोष है नहीं, तेरा ही दोष है, परन्तु तू स्वयं तो महन्त रहना चाहता है और अपना दोष कर्मादिक को लगाता है, सो जिन आज्ञा माने तो ऐसी अनीति संभव नहीं है । तुझे विषय कषाय रूप ही रहना है, इसलिये झूठ बोलता है।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001862
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy