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________________ वस्तु स्वभाव एवं विश्व व्यवस्था ] [ ८७ करता है तो उसके भी छह द्रव्यों के साथ ज्ञेय-ज्ञायक संबंध रूप निमित्त - नैमित्तिक संबंध बनता ही रहता है। अत: उसको दुख की अनुभूति नहीं होगी। लेकिन जब वही जीव अपने अभिप्राय की विपरीतता के द्वारा जाननक्रिया का कर्ता न रहकर अन्य कुछ भी गड़बड़ी खड़ी करता है अर्थात् उनके साथ संबंध जोड़ता है तब उस गड़बड़ क्रिया में, अन्य जो भी द्रव्य उसके अनुकूल दिखते हैं, उनको उस अनुकूलता का कारण मानने लगता है । इसप्रकार यह जीव ही निमित्त - नैमित्तिक संबंध बनाने में भूल करता है । निमित्त वाला द्रव्य इसको भूल नहीं करा देता, वरन् यह जीव ही अपनी गलत मान्यता के कारण अपनी भूल, निमित्त पर थोपता रहता है और राग-द्वेष को बढ़ाता रहता है । शास्त्र में यह भी तो आता है, कर्म उदय आने पर विकार होता ही है ? गोम्मटसार ग्रंथ में आता है कि “जब-जब जैसे कर्म का उदय आता है तब-तब आत्मा को वैसा ही विकार होता है, अन्य प्रकार का नहीं होता"आदि-आदि कथनों से तो ऐसा लगता है कि कर्म का उदय ही आत्मा में विकार उत्पन्न करता है ? अतः आपके द्वारा बताया गया स्वतंत्र परिणमन का सिद्धांत उक्त आगम कथन से मेल नहीं खाता ? नाटक समयसार के सर्व विशुद्ध ज्ञान अधिकार में पं. बनारसीदासजी ने उक्त प्रश्न पर समाधान निम्न अनुसार दिया है :"कोऊ शिष्य कहै स्वामी रागदोष परिनाम, ताकौ मूल प्रेरक कहहु तुम कौन है। पुग्गल व करम जोग किधौं इन्द्रिन को भोग, किधौं धन किधों परिजन किधों भौन है। गुरु कहै छहौं दर्व अपने-अपने रूप, सबनि कौ सदा असहाई परिनौन है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001862
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size7 MB
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