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[सुखी होने का उपाय
जीव का उस समय का परिणमन है लेकिन उसी समय, “अन्य निमित्तरूप द्रव्य कौन था” उसका ज्ञान कराने के लिये तथा जीव की विकारी भावरूप पर्याय की जाति एवं तारतम्यता का ज्ञान कराने के लिये, कर्म की प्रधानता से कथन किया गया है ; जीव का कर्म के आधीन होना सिद्ध करने के लिए नहीं । यह ही उक्त कथनों का अभिप्राय है।।
जीव की विकारी पर्याय एवं कर्म का क्या संबंध है तथा उसकी पर्याय का ज्ञान कराने के लिए कर्म के माध्यम से विवेचन क्यों किया गया आदि विषय पर विस्तृत विवेचन भाग दो में किया जावेगा।
निमित्त नैमित्तिक शब्द द्वारा भ्रम निमित्त-नैमित्तिक शब्द से ही ऐसा लगता है कि नैमित्तिक कार्य में निमित्त का कुछ प्रभाव तो मानना ही चाहिए ? ऐसा भ्रम भी निर्मूल है। क्योंकि कार्य तो द्रव्य की उस समय की पर्याय है, उस पर्याय की उत्पत्ति के समय स्व और पर दोनों हैं। उस ही अपेक्षा से उपादान की मुख्यता से उस एक ही कार्य को उपादेय शब्द से कहा जाता है तथा निमित्त की मुख्यता से उस ही कार्य को नैमित्तिक शब्द से कहा जाता है । यहाँ उपादेय शब्द का अर्थ, ग्रहण करने योग्य नहीं लेना उपादेय के साथ उपादान का व्याप्य-व्यापकपना है लेकिन निमित्त के साथ व्याप्य-व्यापकता का अभाव होने से, उस कार्यरूप पर्याय में निमित्त का अंशमात्र भी प्रभाव आदि नहीं हो सकता। __ इसप्रकार छह द्रव्यों में आपस में निमित्त-नैमित्तिक संबंध अनिवार्य होते हुए भी, निमित्त, अन्य द्रव्य होने के कारण, नैमित्तिक पर्यायों में अंशमात्र भी किसी प्रकार का असर, प्रभाव, परिवर्तन आदि नहीं कर सकता।
संयोगीदृष्टि एवं स्वभावदृष्टि उपरोक्त प्रकार की वस्तुव्यवस्था होने पर भी हमको ऐसा क्यों लगता है कि निमित्त से ही कार्य हो रहा है?
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