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________________ वस्तु स्वभाव एवं विश्व व्यवस्था । [ ८३ उसी समय नैमित्तिक कहलाने वाली पर्याय का भी उत्पाद हो गया, दोनों ने अपना-अपना कार्य एक ही समय में सम्पन्न कर लिया, तब निमित्त को किसी की अनुकूलता प्रतिकूलता रूप होने का अवकाश ही कहाँ रह जाता है। इस पर भी कुतर्क के रूप में कहा जाए कि भले एक समय ही उत्पाद हो लेकिन अनुकूलता - प्रतिकूलता के लिये ही उत्पाद किया, ऐसा कहा जावे तो, यह बात भी सत्यता की कसौटी पर सही नहीं उतर सकती । कारण छह द्रव्यों में पाँच द्रव्य तो अचेतन जड़ हैं, वे तो किसी के अनुकूल रूप परिणमन करने का अथवा प्रतिकूल परिणमन करने का विचार कर ही नहीं सकते। वे तो न अपना ही अस्तित्व जानते हैं न पर का ही अस्तित्व जानते हैं, तब वे किसी के अनुकूल पड़ने अथवा प्रतिकूल पड़ने की दिशा में, क्या, कब और कैसे अपना परिणमन करेंगे ? अतः उनमें से कोई भी द्रव्य किसी के अनुकूल प्रतिकूल पड़ने के लिए परिणमन नहीं करता वरन् अपनी-अपनी पर्याय अपने-अपने क्रमानुसार परिणमन करते रहते हैं, वे परिणमन सहज ही किसी को अनुकूल निमित्त, ( सद्भावरूप निमित्त ) किसी को प्रतिकूल निमित्त ( अभावरूप निमित्त ) कहलाने लगता है । यथार्थ स्थिति यह है कि उस द्रव्य ने तो किसी के लिए कुछ किया ही नहीं था । निमित्त आने पर ही उपादान कार्यरूप परिणमता हुआ दिखता है । देवागम स्तोत्र की कारिका ५८ की अष्टसहस्त्री टीका में आचार्य श्री ने उपादान के दो भेद सिद्ध किये हैं । एक तो त्रिकाली उपादान और एक क्षणिक उपादान | लेकिन दोनों का अस्तित्व एक साथ ही हर समय रहता है। त्रिकाली उपादानगत योग्यतावाला द्रव्य ही उस कार्यरूप परिणमन कर सकेगा। जैसे चेतन में ही जाननपने रूपी पर्याय हो सकती है, अचेतन में नहीं । लेकिन वह चेतन जब जानने रूप कार्य करेगा, उस समय वह क्षणिक उपादानगत योग्यता के अनुसार ही करेगा। पाँच I Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001862
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size7 MB
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