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[ सुखी होने का उपाय नाज्ञो विज्ञत्वमायाति विज्ञो नाज्ञत्वमृच्छति।
निमित्तमात्र मन्यस्तु, गतेधर्मास्तिकायवत् ।। ३५ ॥ अर्थ :- अज्ञ अज्ञानी को न तो कोई ज्ञानी बना सकता है और न ज्ञानी को अज्ञानी बना सकता है। मात्र एक-दूसरे के लिए निमित्त हैं, जैसे गमन करने में धर्मास्तिकाय है।
इसके द्वारा भी यही सिद्ध होता है कि निमित्त का कार्य किसी को पराधीन बनाता नहीं हैं, वरन् अपनी और पर की स्वाधीनता को अक्षुण्ण बनाए रखते हुए भी जो अनुकूलता का संबंध बनता है वही निमित्त-नैमित्तिक संबंध कहा जाता है।
इस ही विषय को विशेष स्पष्टता के लिये अन्य प्रकार से विचार करें। हम जिसको निमित्त कहते हैं वह तो एक अन्य द्रव्य की पर्याय है तथा जिसको हम नैमित्तिक कहते हैं वह एक-दूसरे द्रव्य की पर्याय है। दोनों द्रव्य भिन्न-भिन्न हैं, दोनों पर्यायों के स्वामी भी अन्य-अन्य हैं, वे सब अपनी-अपनी पर्यायों के कर्ता हैं, वे पर्यायें उनकी कर्म हैं। ऐसी स्थिति में विचार कीजिये कि निमित्त वाले द्रव्य की पर्याय का उत्पाद काल एवं नैमित्तिक वाले द्रव्य की पर्याय का उत्पाद काल, एक ही समय है अथवा भिन्न-भिन्न समय का है ? अगर भिन्न-भिन्न समय मानेंगे तो यह मानना होगा कि जब निमित्त होगा तब नैमित्तिक नहीं होगा और जब नैमित्तिक होगा तब निमित्त नहीं रहेगा। ऐसी स्थिति में वह निमित्त किसका? और वह नैमित्तिक किस निमित्त की अपेक्षा ? अर्थात् ऐसी स्थिति में न निमित्त ही सिद्ध होगा और न नैमित्तिक ही। अत: दोनों का उत्पाद एक ही समय में एक ही साथ अलग-अलग द्रव्यों में मानना ही पड़ेगा। जब यह माना जाता है कि दोनों का उत्पाद, एकसाथ एक ही समय अलग-अलग द्रव्यों में हुआ है तो वह निमित्त कहलाने वाले द्रव्य की पर्याय, किसी अन्य द्रव्य की पर्याय का अपने अनुकूल करने का कार्य प्रयास कब और कैसे करेगी ? जब निमित्त वाली पर्याय का उत्पाद हुआ,
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