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[सुखी होने का उपाय वस्तु-स्वतंत्रता के सिद्धान्त को कैसे स्वीकार किया जा सकता है ? अत: उपरोक्त शंकाओं का समाधान नीचे अनुसार समझना चाहिए। वस्तु का परिणमन स्वतंत्र होने पर भी परतंत्रता कैसे ?
जबकि हर एक द्रव्य के परिणमन स्वतंत्र हैं तो हर एक द्रव्यका कार्य, परद्रव्य की सहायता के बिना होता हुआ दिखाई देता, इसका कारण क्या ?
उपर्युक्त विषय समझने के पूर्व, इस विश्वास को सामने रखना आवश्यक है कि वस्तु का परिणमन कभी भी कहीं भी किसी भी हालत में परतंत्र तो हो ही नहीं सकता, इसका दृढ़तम श्रद्धा के साथ समाधान ढूँढ़ना चाहिए।
उपर्युक्त विषय में गम्भीरता से विचारने पर अनुभव में भी आता है कि कोई गाली देवें लेकिन मैं क्रोध करूँ या नहीं करूँ अथवा कम करूँ या ज्यादा करूँ ऐसी स्वतंत्रता है या नहीं ? इसीप्रकार किसी ने मेरी तारीफ कर दी तो मैं मान करूँ अथवा नहीं करूँ ऐसी स्वतंत्रता है या नहीं ? इसीप्रकार पैसा-धन आदि कम होने पर भी अथवा ज्यादा होने पर भी क्या सभी को लोभ के भाव एक सरीखे ही आते हैं अथवा हर एक के भावों में अन्तर दीख रहा है ? इसप्रकार अनुभव में आता है कि बाहर के कारण एक सरीखे मिलने पर भी सभी व्यक्तियों के एक सरीखे भाव तो नहीं होते। मुनिराज को तो किंचित् भी विकृति नहीं होती। अत: यह विश्वास में आता है कि हर एक व्यक्ति स्वतंत्रता पूर्वक अपने-अपने भाव करता है । लेकिन इतना स्पष्टतया दीखने पर भी हमको ऐसा क्यों लगता है कि बाहर के संयोग के कारण हमारे भाव बिगड़ जाते हैं यह मनोयोग मूल समस्या है जिसको हमको समझना है।
स्वतंत्र होने पर भी परतंत्र दिखने का कारण क्या ?
उपर्युक्त विषय को समझने के पूर्व, वस्तु स्वातंत्र्य व्यवस्था को विश्वास में लाकर, फिर उपरोक्त छह द्रव्यों के समुदाय रूप विश्व की
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