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वस्तु स्वभाव एवं विश्व व्यवस्था ।
[६७ है, अत: “वत्थु सहावो धम्मो” के माध्यम से यह सिद्ध हुआ कि आत्मा का तो मात्र जानना ही धर्म है। जिस धर्म की पूर्ण प्रगटता अरहंत भगवान में प्रगट है, वे सकल वस्तु के ज्ञाता होने पर भी किसी में भी कुछ भी करते नहीं, मात्र ज्ञायक ही हैं।
परतंत्रता द्योतक कथन एवं स्पष्टीकरण उपरोक्त विवेचन से उठनेवाले प्रश्न निम्न हो सकते हैं:
१. सर्वप्रथम तो यह महत्त्वपूर्ण शंका उपस्थित होती है कि उपरोक्त कथन के अनुसार यह सिद्ध हुआ कि “कोई भी द्रव्य अथवा उस द्रव्य की पर्याय अन्य द्रव्य या उस अन्य द्रव्य की पर्याय में कुछ कर ही नहीं सकती” लेकिन वर्तमान जगत में तो हमको प्रत्यक्ष इससे विरुद्ध ही दिखता है एवं विरुद्ध ही अनुभव में आता है। कोई भी कार्य बिना किसी दूसरे की सहायता के होता हो- ऐसा दिखता ही नहीं है। जैसे किसी ने गाली दी तो क्रोध होता है, कोई तारीफ कर देता है तो मान कषाय हो जाती है, लेकिन कोई प्रसंग उत्पन्न किए बिना तो कषाय होती ही नहीं देखी जाती, इसीप्रकार पानी शीतल होने पर भी अग्नि लगने पर गर्म होता है, आदि-आदि अनेकों ऐसे दृष्टान्त उपस्थित हो रहे हैं जिनके द्वारा ऐसा ही लगता है कि कोई भी द्रव्य का कार्य बिना दूसरे द्रव्य की सहायता के होता हो-ऐसा दिखता ही नहीं है।
२. दूसरी यह भी शंका खड़ी होती है कि उपरोक्त कथन के अनुसार “हर एक द्रव्य का धर्म अपने स्वभाव के अनुरूप ही परिणमन करना अर्थात् पर्याय उत्पन्न करना है" लेकिन जीव और पुद्गल दोनों ही अपने स्वभाव रूप परिणमन नहीं करके विपरीत भाव - विभावभाव रूप परिणमन क्यों करते हैं।
यथार्थ वस्तुस्थिति को समझने के लिए उपरोक्त शंकाएँ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण, यथास्थान एवं आवश्यक हैं, इनके स्पष्टीकरण हुए बिना
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