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[सुखी होने का उपाय चन्द्राचार्य ने समयसार गाथा ३ की टीका में समर्थन किया है। जिसको ग्रंथ के अध्ययन से जान लेना चाहिए।
उपरोक्त सिद्धांत की चार अभावों के माध्यम से आचार्यों ने दृढ़ता के साथ सम्पुष्टि की है कि (१) किसी भी एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य में “अत्यन्ताभाव" है, अत: जिसका जिसमें अभाव ही हो वह उसमें कैसे क्या कर सकेगा। (२) पुद्गल द्रव्य के किसी भी स्कंध में हर एक परमाणु का दूसरे सजातीय परमाणुओं में अत्यंताभाव होते हुए भी एक क्षेत्रावगाह जुड़े होने से “अन्योन्याभाव” है। (३) किसी भी द्रव्य की वर्तमान पर्याय का उस ही द्रव्य की पूर्व समयवर्ती किसी भी पर्याय में अभाव है उसे “प्रागभाव" कहा गया है। (४) हर एक द्रव्य की वर्तमान पर्याय का उस ही द्रव्य की भविष्य में होने वाली पर्याय में अभाव ही रहेगा उसको “प्रध्वंसाभाव" कहा गया है।
इसप्रकार हर एक द्रव्य की हर एक समय होने वाली अवस्था पर्याय बिना किसी की सहायता के स्वतंत्रता से हर समय उत्पाद-व्यय करती ही रहती है। जब एक द्रव्य की वर्तमान पर्याय में दूसरे द्रव्य का अथवा पर्याय का अभाव ही है तब वह द्रव्य अथवा पर्याय उस अन्य द्रव्य के परिवर्तन में कैसे, क्यों और किस प्रकार मदद कर सकेगा- ऐसी शंका उपस्थित होने का अवकाश कहाँ रहता है ?
___ उपरोक्त स्थिति में हर एक वस्तु अपने-अपने स्वभावों, गुणों में ही निरन्तर परिणमन कर सकती है और करती ही रहती है, इसी को आचार्य महाराज ने “वत्थु सहावो धम्मो” के द्वारा कहा है कि हर एक वस्तु अपने स्वभाव रूप परिणमन करे वही हर एक वस्तु का धर्म है।
उपरोक्त सिद्धान्त के अनुसार जीव नाम आत्मा भी एक वस्तु है, अत: उसका भी धर्म उसके स्वभाव रूप परिणमन करना ही है। आत्मा का स्वभाव ज्ञान है अत: आत्मा का जाननरूप परिणमन होना ही उसका धर्म है। विभावरूप अर्थात् रागादिरूप परिणमन उसका धर्म नहीं अधर्म
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