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वस्तु स्वभाव एवं विश्व व्यवस्था।
[६५ स्वभाव से सदा शाश्वत बनी रहती है और वह सदा नित्य बनी रहने पर भी हर समय अपने आप से ही अपनी अवस्थाएँ पलटती हुई अनन्त काल तक सत्ता में बनी रहती हैं।
३ “गुणपर्ययवद्र्व्यं सूत्र के सिद्धान्तानुसार हर एक द्रव्य की स्वयं की अपनी-अपनी क्वालिटियाँ, शक्तियाँ, योग्यताएँ गुण होते हैं तथा वे द्रव्य - वस्तुएँ अपनी-अपनी गुण, क्वालिटी, शक्तियों में ही निरन्तर पलटन करते ही रहते हैं, उस पलटन को पर्याय कहते हैं। अत: वस्तु गुणपर्यायवान् ही होती है।
उपरोक्त सिद्धान्तों से निष्कर्ष निकलता है कि विश्व का हर एक द्रव्य अपने-अपने स्वयं के गुणों में ही निरन्तर, बिना किसी अन्य की सहायता के अपनी-अपनी पूर्व अवस्थाओं को छोड़ता हुआ नवीन-नवीन अवस्था अर्थात् पर्यायरूप से उत्पन्न होता ही रहता है। ऐसा कोई भी समय नहीं आता कि कोई भी द्रव्य किसी भी समय अपना उपरोक्त क्रम छोड़ देवे अर्थात् अपनी-अपनी पूर्व अवस्था को बदलकर नवीन-नवीन अवस्था रूप उत्पन्न होना बंद कर दे अथवा एक समय मात्र भी रुक जावे। तात्पर्य यह है कि मैं भी अनन्त द्रव्यों में ही एक जीवद्रव्य हूँ, मैं स्वयं अपने अनंत मुणों से परिपूर्ण हूँ, साथ ही अपने गुणों की हर समय पूर्व अवस्था छोड़कर बिना किसी अन्य की सहायता, मदद के नवीन-नवीन अवस्थाओं को निरन्तर करता हुआ ही अनादि से अभी तक विद्यमान हूँ, एवं अनन्त काल तक भी अपने-अपने गुणों की अवस्थाओं में परिवर्तन करते हुए भी विद्यमान रहूँगा। मेरे इन परिवर्तनों में अन्य द्रव्य की सहायता की कोई अपेक्षा नहीं है, क्योंकि अन्य द्रव्य भी तो अपने-अपने गुणों में ही परिणमन कर रहे हैं, वह अपना परिणमन भी तो किसी समय भी रोक नहीं सकते, अत: वह मेरे परिणमन में सहायता कर भी कैसे सकते हैं। इसप्रकार सभी द्रव्य अपने-अपने गुण पर्यायों में ही परिणमन करते हुए अनादि-अनन्त कायम बने रहते हैं। इसी सिद्धान्त का भगवान अमृत
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