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[ सुखी होने का उपाय
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आकुलता उत्पन्न कर लेता है और दुखी होता रहता है, क्योंकि वे अन्य द्रव्य तो स्वतंत्र हैं, इसके आधीन हैं नहीं, अतः अपनी उल्टी मान्यता से दुःखी होता रहता है ।
निष्कर्ष यह है कि आत्मा तो सुखी ही है, उसका स्वभाव दु:खी रहने का है ही नहीं, अत: सुख कहीं से लाना नहीं है, प्राप्त करना नहीं है, बल्कि अपनी गलत मान्यता बदलकर अर्थात् पर का कर्ता, भोक्ता नहीं मानकर, मात्र ज्ञाता ही मानता रहे तो दुःख का उत्पन्न होना ही बंद हो जावे, आत्मा तो सुखी ही है ।
स्वचतुष्टय में परचतुष्टय की नास्ति
उपरोक्त विषय के द्वारा भी हर एक द्रव्य की हर एक पर्याय की स्वतंत्रता एवं स्वतंत्र कार्यक्षमता को भी समझना है । अतः स्वचतुष्टय में परचतुष्टय की भिन्नता को भी गंभीरतापूर्वक समझना चाहिए। हर एक द्रव्य यानी वस्तु का स्वभाव ही ऐसा है कि हर एक वस्तु स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल, स्वभाव में ही निरन्तर परिणमन करती रहती है । अपने स्वचतुष्टय को छोड़कर परद्रव्य के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव में वह कभी भी किसी भी प्रकार से पहुँचती ही नहीं है, तब फिर परिणमन तो कर ही कैसे सकती है ?
स्वचुष्टय अर्थात् हर-एक द्रव्य स्वतंत्र सत्तावान् पदार्थ अलग-अलग है । वह अपने ही प्रदेशों रूप स्वक्षेत्र में रहता है । उसका स्वयं का उत्पाद स्वयं में हर समय होता रहता है अतः स्वकाल में ही होता है, यह तो स्पष्ट ही है कि हर एक द्रव्य का भाव तो हर एक द्रव्यका अपना-अपना होता ही है।
जैसे आत्मा के सबसे नजदीक और सदा साथ रहने वाले शरीर के स्वचतुष्टय, आत्मा के स्वचतुष्टय से अत्यन्त भिन्न होने से, दोनों अपने-अपने स्वचतुष्टय में निरंतर परिणमन करते हुए ही अनुभव में आते हैं । उस शरीर में तकलीफ होने पर आत्मा अपने स्वक्षेत्र में रहते हुए ही
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