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________________ वस्तु स्वभाव एवं विश्व व्यवस्था ] [ ५७ न उनको भी कोई प्रकार का अधिकार है और न करते ही हैं और न कर ही सकते हैं। वास्तविक स्थिति तो यह है कि जगत में अगर जाननेवाला पदार्थ नहीं हो, तो उन द्रव्योंके अस्तित्व की प्रसिद्धि कौन करता । अतः विचार कीजिए, कीमत करने लायक पदार्थ कौन हो सकता है ? अगर उनको जानने वाला उनकी प्रसिद्धि नहीं करे तो जगत् में उनका अस्तित्व ही सिद्ध नहीं हो सकेगा ? अर्थातः जिन ज्ञेय पदार्थों को मेरा ज्ञान जानता है वे मेरे लिए कीमत करने योग्य हैं अथवा जो अपने आपके अस्तित्व को जानते हुए भी अन्य ज्ञेयों के अस्तित्व को भी जानता है, वह कीमत करने योग्य है, आदि-आदि। इसप्रकार उपरोक्त विचारों के माध्यम से एवं आगम के अभ्यास से तथा अपने स्वयं के अनुभव में भी उपरोक्त सत्यता प्रमाणित करके श्रद्धा में ऐसी दृढ़ता, विश्वास एवं निर्णय उत्पन्न करे कि जगत में “मैं” ही मेरे लिए एक उत्कृष्ट महिमावान पदार्थ हूँ । मेरे ज्ञान के जानने में आते हुए जितने भी ज्ञेय हैं, वे मेरे से भिन्न रहकर, अपने आपके ही गुणपर्यायों में अनेक प्रकार के वेष बदलते हुए परिणम रहे हैं, उनकी भी प्रसिद्धि करने वाला मेरा ज्ञान ही तो है । अतः वे कैसे भी वेष धारण करते विचलित नहीं कर सकते । इसप्रकार की दृढ़ श्रद्धा उत्पन्न होने से, जगत के समस्त ज्ञेयों के प्रति, वे कोई भी हों, कैसे भी हों, कहीं भी हों, अत्यन्त उपेक्षा वर्तन लगती है, उनके प्रति उत्साह की निवृत्ति खड़ी होती है, कर्तृत्वबुद्धि का अभिप्राय टूटने लगता है, फलस्वरूप तत्संबंधी आकुलता खड़ी होने का अवकाश ही नहीं रहता । अतः परिणति में अत्यन्त शांति वर्तने लगती है। इस ही का नाम आत्मिक सुख है, यही सुख बढ़ते-बढ़ते पूर्ण सुखरूप परिणमित हो जाता है। यही आत्मा का परमस्वभाव रूप धर्म है। लेकिन जब यह आत्मा अपने जानने रूप स्वभाव का विश्वास भूलकर, जो ज्ञान के जानने में ज्ञेय आते हैं, उनके कार्यों का अपने-आपको कर्ता मानने लगता है, जब वे ज्ञेय इसके अनुकूल नहीं परिणमते तब स्वयं हुए मेरे ज्ञान के सन्मुख उपस्थित हों, मेरे ज्ञान को जरा भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001862
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size7 MB
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