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। सुखी होने का उपाय चाहिए, वह इतने समझने मात्र से तो उत्पन्न नहीं हुई । अत: इस संबंध में विस्तृत गवेषणा भी आवश्यक है।
ज्ञानस्वभाव के निर्णय से धर्म की उत्पत्ति उपर्युक्त गवेषणा की मर्यादा तो मात्र इतने तक ही सीमित है कि मेरे निर्णय में ऐसा दृढ़तर श्रद्धा उत्पन्न हो कि इस विश्व में छह जाति के अनन्त द्रव्य हैं उनमें ही मैं भी एक जीवद्रव्य हूँ। अन्य सभी द्रव्यों में अचेतनपना होने से वे न तो अपने आपको जानते हैं और अन्य जगत में कोई और भी है, ऐसा भी नहीं जान सकते, क्योंकि उनमें जानने की शक्ति का अभाव है। फिर भी वे सब उन-उन द्रव्यों की अपनी-अपनी क्वालिटियाँ, गुण, स्वभाव हैं, उनमें ही निरन्तर उत्पाद-व्यय करते हुए कायम बने रहते हैं । अनादि-अनन्त अपने अस्तित्व को टिकाए हुए बनाए हुए हैं कोई आपस में एक-दूसरे के परिणमन में किसी प्रकार का हस्तक्षेप, सहाय, मदद अथवा बाधक रूप नहीं होते वरन् अपना-अपना परिणमन भी करते रहते हैं। इसप्रकार से सभी द्रव्य अपने-अपने स्वभावों में ही परिणमन करते हुए अनादि अनन्त विश्व की व्यवस्था बनाए हुए हैं। यह ही उन-उन वस्तुओं का निज धर्म है और उपकार है।
उपरोक्त सभी द्रव्यों से विलक्षण मैं भी असाधारण चैतन्यस्वभाव अर्थात् स्व और पर का जानने रूप अचिन्त्य सामर्थ्य स्वभाव का धारक एक द्रव्य हूँ। जगत के किसी भी द्रव्य में जानने की सामर्थ्य नहीं है, अत: मेरे अस्तित्व को नहीं जानते । लेकिन मैं जैसा ऊपर वर्णन किया-ऐसे अपने अचिन्त्य सामर्थ्य ज्ञान, सुख आदि अनन्त गुणों की महान सम्पदा सहित, जगत के सभी द्रव्यों से महान् सत् रूप से सबको जानता हुआ अनादि अनन्त विराजमान हूँ। उन सबके साथ मेरा सम्बन्ध कोई है तो मात्र इतना ही पवित्र सम्बन्ध है कि मैं जैसा वे परिणमन करते हुए विद्यमान हैं, उनको मात्र जान लूँ और जब मैं उनको जानूँ तो वे मेरे ज्ञान के ज्ञेय मात्र रहें। इसके अतिरिक्त, उनके कार्यों में कोई भी प्रकार का हस्तक्षेप, फेरफार अथवा कमी-ज्यादा करने का न मुझे ही अधिकार है, इसीप्रकार
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