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________________ वस्तु स्वभाव एवं विश्व व्यवस्था ] [ ५९ अपनी पर्याय में उस तकलीफ को दूर करने संबंधी भाव करता रहता है, लेकिन उन भावों आदि का शरीर की तकलीफ पर किंचित मात्र भी असर नहीं होता, क्योंकि शरीर रूपी द्रव्य, अपने स्वक्षेत्र में रहकर अपनी-अपनी पर्यायों को अपने-अपने गुणों अर्थात् क्वालिटियों में परिणमन करते रहते हैं । वे आत्मा के भावों की किंचित् मात्र भी अपेक्षा ( परवाह ) नहीं करते । इससे एक सिद्धान्त समझ में आता है कि हर एक द्रव्य की हर समय की पर्याय के, और दूसरे द्रव्य की हर एक पर्याय के, अपने-अपने स्वचतुष्टय ही भिन्न हैं, द्रव्य भिन्न, क्षेत्र भिन्न, काल भिन्न, भाव भिन्न होने से वे किसी में कर भी कैसे सकते हैं? तब मेरी ऐसी मान्यता, कि मैं परद्रव्य की किसी भी पर्याय में कुछ कर सकता हूँ, यह किंचित् मात्र भी संभव नहीं होने से, एकदम मिथ्या सिद्ध होती है । यह मान्यता ही एकमात्र आकुलता को उत्पन्न करने की मूलभूत कारण है । अतः जिसको सुख शांति चाहिए उसको, यह सिद्धान्त समझकर ऐसी उलटी मान्यता छोड़ देनी चाहिए । इस ही प्रकार जीवद्रव्य के जितने भी गुण हैं उनमें, ज्ञानगुण भी स्वद्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव को छोड़कर अन्य द्रव्य जो कि ज्ञेय मात्र हैं उनको जानने के लिए उन ज्ञेय द्रव्यों तक तो जा नहीं सकता, लेकिन फिर भी परचतुष्टय में स्थित उन ज्ञेय रूप परवस्तुओं को अपने स्वचतुष्टय में रहकर मात्र जान लेता है, यह एक अद्भुत सामर्थ्य है 1 ज्ञानगुण की अचिंत्य महिमा की बात तो पहले की जा चुकी है। लेकिन यहाँ तो हर एक समय उत्पन्न होनेवाली एक समय मात्र की मर्यादा वाली एक पर्याय की चर्चा की जा रही है । जैसा ऊपर कहा जा चुका है कि ज्ञानी, अज्ञानी, अल्पज्ञानी, बहुज्ञानी, सम्पूर्ण ज्ञानी कोई भी हो, सब ही अपने-आपको जाने बिना, अकेले पर को जानते ही नहीं हैं। यथा, मुझे क्रोध आया तो इसमें अपने आपको जाने बिना अकेले क्रोध का ज्ञान नहीं हुआ, तब फिर अन्य ज्ञेयों की तो बात ही क्या ? आत्मा के ज्ञान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001862
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size7 MB
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