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[ सुखी होने का उपाय
अधर्मरूप भाव कौन-कौन से हैं और उनको धर्म-अधर्म की संज्ञा क्यों
दी गई है।
इस संबंध में विचार करने पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि क्षमा आदि भावों में आत्मा ज्यादा काल ठहर सकता है तथा ठहरना चाहता है इसलिए वे ही आत्मा के स्वाभाविक भाव हैं इसलिए उनको आत्मा का धर्म कहा जाता है । तथा क्रोधादि भावों में ज्यादा काल आत्मा ठहर नहीं सकता एवं ठहरना भी नहीं चाहता इसलिए वे आत्मा के स्वभावभाव नहीं है वरन् विभावभाव हैं। इसलिए इसी दशा को जीवद्रव्य की विभावदशा कही है। लेकिन दोनों ही एक आत्मद्रव्य की ही पर्यायें हैं, उनमें से स्वाभाविक पर्याय रूप परिणमन करते रहने में ही आत्मा की सुन्दरता है अर्थात् आत्मा को शांति की प्राप्ति होती है और विभावदशा में तो आकुलता ही होती है।
उपरोक्त दृष्टान्त के द्वारा यह स्पष्ट हो जाता है कि जिसप्रकार जीवद्रव्य का धर्म, अपने स्वभाव यानी गुणों के जैसी ही पर्याय उत्पन्न होना है, उसीप्रकार छह द्रव्यों का, संख्या अपेक्षा अनन्त द्रव्यों का धर्म भी अपने-अपने स्वभाव जैसी पर्यायें उत्पन्न होते रहना ही है । स्वभाव से विपरीत भाव वाली पर्याय उत्पन्न करना किसी भी द्रव्य का धर्म ही नहीं है ।
इस ही अपेक्षा वस्तु के स्वभाव को धर्म कहा गया है । इससे सिद्ध हुआ कि विश्व की हर एक वस्तु अपनी-अपनी स्वयं की क्वालिटियाँ अर्थात् गुणरूप ही निरन्तर बनी रहें, यही विश्व की सब वस्तुओं का अपना-अपना धर्म है। इस ही से विश्व शांति संभव है ।
स्वभाव से विपरीत परिणमन करने वाली वस्तुएँ कौन- कौन सी हैं ?
अब यह समझना है कि विश्व की छह प्रकार की वस्तुओं के धर्म, क्या-क्या हैं। वे वस्तुएँ हैं :- अनन्त जीवद्रव्य, अनंतानंत पुद्गलपरमाणु,
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