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________________ वस्तु स्वभाव एवं विश्व व्यवस्था । [५१ एक धर्मद्रव्य, एक आकाश द्रव्य एवं असंख्यात कालद्रव्य । इनमें से पहले चर्चा कर लें कि इनमें कौन से द्रव्य ऐसे हैं जो स्वभाव से विपरीत पर्याय का भी उत्पादन कर सकते हैं ? इस संबंध में जिनवाणी में कथन है कि जीवद्रव्य एवं पुद्गल द्रव्य के अतिरिक्त अन्य जो चार प्रकार के द्रव्य धर्म, अधर्म, आकाश, काल द्रव्य हैं, वे तो निरन्तर सदाकाल अपने स्वभाव जैसी ही पर्यायों का उत्पादन करते रहते हैं । इन चारों में से कोई भी द्रव्य कभी किसी भी काल में स्वभाव से विपरीत पर्याय उत्पन्न करता ही नहीं। जैसे धर्मद्रव्य हर समय किसी भी जीव तथा पुद्गल को चलने में निमित्त होता है, अधर्मद्रव्य चलकर ठहरने में निमित्त होता है, आकाश द्रव्य हर एक जीव को पुद्गल का स्थान देने में निमित्त होता है, इसी प्रकार कालद्रव्य कालपरिवर्तन में निमित्त होता है। इनमें कभी किसी भी समय न तो ऐसा हुआ ही और न होगा ही कि इन चारों में से कोई भी अपना काम करना बंद कर दें, अथवा विपरीत उत्पाद करने लगे। इसलिए उपरोक्त चारों द्रव्य = वस्तुएँ तो अनादि अनंत स्वाभाविक उत्पाद ही करती रहती हैं अर्थात् अपने-अपने धर्मरूप ही परिणमन करती रहती हैं। बाकी रहे जीव एवं पुद्गल द्रव्य, उनमें से पहले पुद्गल द्रव्य के बाबत समझ लें । पुद्गल द्रव्य दो अवस्थाओं में ही रहता है। एक तो अणुरूप और एक स्कन्धरूप। अणुरूप अर्थात् अकेली हालत में रहने वाले को ही यथार्थ में पुद्गल-द्रव्य कहा गया है। वह ही मूलत: पुद्गल द्रव्य है, लेकिन वे ही अणुरूप रहने वाले अनेक पुद्गल द्रव्य, अकेले रूप न रहकर एकसाथ मिल जाते हैं, उस समय के उन मिले हुए पुद्गलों के पिण्ड को स्कन्धरूप पुद्गल कहते हैं। इन दोनों प्रकार की दशाओं में से उस पुद्गल का अणुरूप अकेला रहना वह स्वाभाविक दशा है एवं अणुदशा छोड़कर स्कन्धरूप हो जाना ही पुद्गल-द्रव्य की स्वाभाविक दशा से विपरीत दशा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001862
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size7 MB
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