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वस्तु स्वभाव एवं विश्व व्यवस्था ] है, उसे द्रव्य कहते हैं। लेकिन उन वस्तुओं में से कोई भी वस्तु अपने-अपने स्वभावरूप अर्थात् अपनी जो स्वयं की क्वालिटी है उस रूप पलटना नहीं करके उसमें जरा भी विपरीत रूप अथवा न्यून रूप, पलटना यानी पर्याय को उत्पाद करे, तो वही उस वस्तु का विपरीतपना अर्थात् अधर्म
आचार्य अमृतचंद्र ने समयसार गाथा ३ की टीका में लिखा है कि “इसलिये धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल, जीवद्रव्यस्वरूप लोक में सर्वत्र जो कुछ जितने-जितने पदार्थ हैं वे सब निश्चय से वास्तव में एकत्व निश्चय को प्राप्त होने से ही सुन्दरता को पाते हैं। टंकोत्कीर्ण की भाँति शाश्वत स्थित रहते हैं।"
उपरोक्त ऊहापोह से यह समझ में आता है कि हर एक वस्तु अपने-अपने स्वभाव के जैसी ही नवीन-नवीन पर्याय करता रहे यही हर एक वस्तु का धर्म यानी स्वभाव है, उस ही में उस वस्तु की शोभा है। यह भी सिद्ध है कि हर एक वस्तु ज्यादा काल तक अपने स्वभावरूप ही रह सकती है लेकिन अपने स्वभाव से विपरीत दशा में ज्यादा काल वस्तु का टिके रहना अर्थात् बने रहना भी संभव नहीं है। इन सब कारणों से सिद्ध होता है कि वस्तु का अपने-अपने स्वभावरूप बने रहना ही वस्तु का अपना-अपना धर्म है।
हमारे प्रत्यक्ष अनुभव से भी सिद्ध है कि आत्मा के क्षमारूप भाव, निर्मानतारूपभाव, मायाचारीरहित भाव एवं निर्लोमतारुपभाव अनुभव में आते हैं। साथ ही क्रोधरूपभाव, मानरूपभाव, मायाचारीरूपभाव एवं लोभरूप भाव भी अनुभव में आते हैं। दोनों ही प्रकार के भाव इस आत्मारूपी जीवद्रव्य की ही पर्यायें हैं। दोनों ही प्रकार के भाव बदलते ही रहते हैं इसलिए उनका उत्पाद-व्यय निरन्तर होता ही रहता है। अब समझना यह है कि उन भावों में से धर्मरूप भाव कौन-कौन से हैं एवं
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