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[सुखी होने का उपाय अस्तित्वगुण होने से वे अपनी-अपनी गुणरूपी शक्ति के द्वारा विराजमान हैं, उनकी सत्ता में किसी को भी हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है। अत: न तो कोई उनका नाश कर सकता है और न कोई उनके किसी भी एक गुण को भी कम-ज्यादा कर सकता है। इस ही से सहज ही ऐसी श्रद्धा उदित होती है कि मैं स्वयं भी एक जीवद्रव्य हूँ, अपने अनन्त गुणों से भरा पूरा अपनी स्वतंत्र सत्ता से विराजमान हूँ। जगत में कोई भी ऐसा नहीं है जो मेरी सत्ता में अतिक्रमण करे अथवा बाधा पहुँचावे । इस प्रकार से अपने में अनन्त निर्भयता प्रगट होती है एवं दीनता नष्ट हो जाती है तथा पर में कर्त्तत्वबुद्धि का मिथ्या अभिमान भी सहज ही समाप्त हो जाता है।
पर्याय क्या है ? गुणों के परिणमन को पर्याय कहते हैं। गुणों का समूह जो द्रव्य है वह द्रव्य , जब स्वयं परिणमन करता है अर्थात् पलटता है तो गुणों का परिणमन भी स्वत: ही हो जाता है। इससे फलित होता है कि द्रव्य का परिणमन कभी भी रुक सकता नहीं, अत: पर्याय के बिना का द्रव्य भी कभी हो सकता नहीं; ऐसी वस्तु का स्वरूप ही है। इस ही कारण आगमका वचन भी है-“उत्पाटव्ययध्रौव्ययुक्तंसत्”, “सत्द्रव्यलक्षणं" अर्थात् वस्तु की सत्ता तब ही संभव है जबकि वह, गुणों का समूहरूप द्रव्य, स्वयं ध्रुवरूप रहकर उत्पाद-व्यय करता रहे अर्थात् पलटता रहे तब ही उसका अस्तित्व रहना संभव है।
प्रत्यक्ष अनुभव में भी आता है कि बाल्यावस्था, युवावस्था, वृद्धावस्था तीनों अवस्थाएँ पलट कर ही हुई हैं लेकिन जिसको ये अवस्थाएँ हुई वह तो तीनों समय में ध्रुवरूप वही का वही रहा। इस ही प्रकार इस आत्मा के एक ज्ञानगुण पर विचार करें तो गत पाँच वर्षों में जितने प्रकार की अच्छी अथवा बुरी जो भी घटनाएँ घटी हों, उन घटनाओं को जब भी याद करें- प्रत्यक्षवत् हो जाती हैं। इस पर से ही सिद्ध हो जाता है कि
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