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वस्तु स्वभाव एवं विश्व व्यवस्था ]
[४३ आत्मा का ज्ञानगुण सब ही अवस्थाओं के काल में घुवरूप से कायम था तब ही तो उन घटनाओं का ज्ञान इस समय आ जाता है और अगर ध्रुवरूप ही रहता और पलटता ही नहीं तो अलग-अलग समय में होनेवाली घटनाओं की जानकारी रूपी अनेकता ज्ञान में कैसे आ सकती थी ? अत: स्पष्ट है कि ज्ञानगुण एवं ज्ञानगुण के साथ-साथ अन्य अनंत गुणों का धारी आत्मा स्वयं ध्रुवरूप कायम रहकर भी हर समय उत्पाद-व्ययरूप परिणमन करता ही रहा है और करता ही रहेगा। ऐसा ही वस्तु का स्वभाव है।
इस विषय पर और भी गंभीरता से विचार करें कि जब हम किसी भी वस्तु को ज्ञान में लेना चाहें तो पर्याय के माध्यम से ही वस्तु ज्ञान में आती है क्योंकि वस्तु का अस्तित्व ही किसी न किसी अवस्था रूप ही होता है। बिना किसी भी अवस्था के वस्तु नहीं रहती और अवस्था वस्तु की ही होती है। इसलिए दोनों अभिन्न ही हैं । वस्तु स्वयं पलटती हुई अपनी अवस्थाओं को बदलती रहती है, उसके उन परिवर्तनों के लिए, किसी भी अन्य कोई की भी किसी भी प्रकार की सहायता की आवश्यकता नहीं पड़ती, क्योंकि यह तो वस्तु का स्वभाव ही है कि वह निरपेक्षतया स्वत: ही उत्पाद व्यय करते हुए भी ध्रुवरूप हर समय बनी रहे, उस रूप ही उसका अस्तित्व भी बना हुआ है।
दृष्टान्त के लिये- जैसे संसार दशा में मेरा एक जीवद्रव्य ही है, वह देवाकार, तिर्यंचाकार, मनुष्याकार आदि किसी न किसी अवस्था में ही मिलेगा। बिना किसी आकार के भी क्या कभी मिल सकेगा? लेकिन सब आकारों को परिवर्तन करते हुए भी क्या आकारों के नाश हो जाने के साथ-साथ जीवद्रव्य का अस्तित्व भी समाप्त हो जाता है? ऐसा तो देखा नहीं जाता। लेकिन जब यह जीवद्रव्य, अपनी मनुष्याकार पर्याय को छोड़कर तिर्यंचाकार पर्याय को प्राप्त करता है तो इस जीव के चिरकाल के साथी ये शरीर रूप रहने वाले पुद्गल परमाणुओं का स्कन्ध,
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