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[ सुखी होने का उपाय
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गया। वरन् बिना कोई शंका के वह पुत्र समझ जाता है कि मेरे पिताजी यहाँ से चले गये, तो उनका अभाव नहीं हो गया। पिताजी इस स्थान पर नहीं है लेकिन अन्यत्र कहीं भी उनका अस्तित्व है, इसीप्रकार जब हम यह बोलते हैं कि इस शरीर में से जीव निकल गया तो इसका मतलब बिना कोई शंका के हम यह स्वीकार करते हैं कि उस शरीर से निकल जाने वाले जीव का अभाव नहीं हो गया वरन् कहीं न कहीं उसका अस्तित्व है अवश्य ।
ऐसी परिस्थिति में मुझे यह मानना ही पड़ेगा कि वर्तमान में प्राप्त मेरी असमान जातीय पर्याय को, जिसको अभी तक मैंने “मैं” सरीखा मान रखा था, वह मेरी भूल थी। इन दोनों की मिली-जुली इस दशा में भी, शरीर छूट जाने पर जो अलग हो जावेगी और कहीं न कहीं कायम रहेगी अर्थात् जिसका अस्तित्व नाश नहीं होगा, ऐसी जो भी शक्ति है, जिसको आत्मा, जीव आदि किसी भी नाम से कहो, वह एकमात्र “मैं” हो सकता हूँ। यह शरीर अथवा यह मिली-जुली पर्याय" मैं" नहीं हो सकता। इस प्रकार अनेक तर्क-वितर्कों के द्वारा आगम, युक्ति, अनुमान एवं स्वानुभव से यह पक्का निर्णय हो जाना चाहिए कि इस शरीर के अन्दर रहते हुए भी यह जीव ही “मैं” हूँ, यह शरीर भले ही जीव के साथ रहे, लेकिन वह "मैं" नहीं हो सकता ।
ऐसी अकाट्य श्रद्धा, विश्वास, प्रतीति, निर्णय प्रगट हो जाने पर ही धर्म समझने की पात्रता उत्पन्न होगी। क्योंकि जिस पात्र जीव को ऐसी अकाट्य श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है उसकी ही साधना का केन्द्र बिंदु भी एकमात्र अपना आत्मा ही हो जाता है । धर्म समझने के लिए इधर-उधर उपयोग का भ्रमाने की भटकन समाप्त होकर, अपनी सम्पूर्ण शक्ति, एकमात्र अपने आत्मा की ओर ही केन्द्रित हो जाती है। अतः उसको समझने में सुगमता भी प्राप्त हो जाती है।
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