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वस्तु स्वभाव एवं विश्व व्यवस्था ]
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कर दिया जाता है और जिसके निकल जाने के कारण यह जीवित शरीर भी मुर्दा हो जाता है, ऐसा वह जीव इस शरीर से निकल कर अन्यत्र किसी शरीर को अपना निवास बना लेता है, लेकिन उसका अभाव नहीं हो
जाता ।
मैं कौन हूँ ?
इस स्थिति में यह प्रश्न सहज ही महत्वपूर्ण हो जाता है कि ऐसी दशा में इन दोनों में से “मैं” कौन हूँ ? क्योंकि जिस पर्याय को मैंने अभी तक “मैं” मान रखा था उस पर्याय का तो अब कहीं पर भी अस्तित्व ही नहीं रहा । वास्तव में वे दोनों अलग थे इसलिए ही अलग-अलग हो गये। मैंने भ्रम से भूलकर इस पर्याय को “मैं” मान रखा था, इसलिये अब मुझे निर्णय करना चाहिए कि इन दोनों में से “मैं” कौन हूँ। गंभीरता से विचार करने पर सहज ही समझ में आ जाता है कि जिसको जलाकर मिट्टी में मिला दिया गया वह “मैं” कैसे हो सकता हूँ? मेरा अस्तित्व तो मुझे प्रत्यक्ष अनुभव में आता है ।
अखबारों में पढ़ने को भी मिलता है कि कई व्यक्तियों को वर्तमान भव में पूर्व भव की बातें याद आ जाती हैं और उन प्रसंगों के संबंध में छानबीन करने पर वे सत्य प्रमाणित होती हैं। साथ ही लौकिक में भी कहा जाता है कि मृत्युकाल में जब यह शरीर मुर्दा हो जाता है तो कह हैं कि अब इसमें से जीव निकल गया, अतः यह जलाने योग्य हो गया । इससे यह निष्कर्ष निकला कि हर व्यक्ति अव्यक्तरूप से यह स्वीकार करता है एवं मानता है कि जिसको यह कहता है—“ निकल गया", उसका अस्तित्व कहीं न कहीं है जरूर। दृष्टान्त पूर्व में दिया जा चुका है कि कोई एक व्यक्ति अपने मित्र के घर आकर वहाँ से वापस अपने घर चला गया, उसके चले जाने के बाद उस व्यक्ति का पुत्र उस मित्र के घर आता है तो उसका मित्र यही है कहता है कि तेरा पिता यहाँ से चला गया। ऐसा सुनते ही उस पुत्र को ऐसा विकल्प खड़ा नहीं होता कि मेरा पिता मर
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