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________________ [ २९ वस्तु स्वभाव एवं विश्व व्यवस्था] उपरोक्त निर्णय की पुष्टि इन विचारों से भी होती है कि जिसको धर्म करना है वह स्वयं अगर नष्ट हो जावे-भष्मीभूत हो जावे तो धर्म क्यों करना ? उस धर्म का फल पाने के लिए तो उसका अस्तित्व ही नहीं रहेगा अत: जो कायम रहे यानी जिसका भविष्य में भी अस्तित्व बना रहे तो वह धर्म का फल प्राप्त कर सकेगा। अत: वर्तमान शरीर के अन्दर रहने वाला जीव है वह ही “मैं” हूँ और मेरा कभी नाश भी नहीं होगा। इसलिए धर्म का फल भी मैं ही प्राप्त करूँगा। अत: यह जीवात्मा ही, “मैं” जीव हूँ यह शरीर “मैं” नहीं हूँ इसलिये मुझे अर्थात् “आत्मा को, आत्मा के लिए ही, आत्मा में ही, मेरा धर्म होगा,” ऐसा विश्वास जाग्रत करे कि “मुझे आत्मा के धर्म का स्वरूप समझकर अपने ही लिए अपने में ही धर्म प्रगट करना है।" ___ तात्पर्य यह है कि सर्वप्रथम पूर्ण पुरुषार्थ पूर्वक यह निर्णय करना आवश्यक है कि धर्म किसको करना है अर्थात् “मैं” कौन हूँ। धर्म कहाँ होता है ? यह निर्णय करने के पश्चात् कि धर्म अर्थात् आत्मा को करना हैयह निर्णय करना आवश्यक हो जाता है कि वह आत्मा का धर्म आत्मा में ही होता है अथवा आत्मा के अतिरिक्त अन्य द्रव्य शरीरादि में होता है। इसका निर्णय करने के भी पहले यह समझना चाहिए कि धर्म के विपरीत, अधर्मभाव क्या है और कहाँ उत्पन्न होता है ? आत्मा अपने अन्दर होने वाले जिन भावों को दूर करना चाहता हो वे अधर्मभाव हैं तथा जिन भावों को बनाए रखना चाहता हो वे ही धर्मभाव हैं। ___ अत: अभी जो पापभाव अथवा आकुलता का भाव आत्मा में हो रहा है वही तो अधर्मभाव है; उसको टालकर उस के स्थान पर ही तो मुझे धर्मभाव, अनाकुल अर्थात् शांतभाव उत्पन्न करना है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001862
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size7 MB
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