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[ सुखी होने का उपाय हो जावे तो उसको जान से भी मारने में पीछे नहीं हटता। फिर भी इच्छा के अनुसार तो होता नहीं तब और भी ज्यादा दुःखी होता है।
आकुलता ही दुःख । जिसको लौकिकजन पूर्ण सुखी कहते हों, जो स्वयं भी अपने-आपको सुखी मानकर इन्द्रिय विषयों के भोगों में मग्न हो, उसी समय अगर कोई टेलीग्राम आ जावे कि तेरे को एक करोड़ का घाटा हो गया अथवा तेरे पुत्र का मरण हो गया तो उस व्यक्ति को आप सुखी कहेंगे या दुःखी ? साथ ही वह अपने-आपको पूर्ण सुखी मानने वाला व्यक्ति भी अपने-आपको सुखी मानेगा या दुःखी ? आप निर्णय करें कि जिस सामग्री की प्रचुरता को आपने सुख माना था वह तो इस समय भी जैसी की तैसी ही मौजूद है, फिर वह दुःखी क्यों हुआ ? इन सबसे आप स्वयं ही निष्कर्ष पर पहुँच जावेंगे कि वह सामग्री रहते हुए भी, उस टेलीग्राम से जो तीव्र आकुलता उसको खड़ी हो गयी थी, वह आकुलता ही दुःख है। क्योंकि वह आकुलता पहले नहीं थी अब वह आकुलता उत्पन्न होने पर वह अपने को दुःखी मानने लगा। __निष्कर्ष यह निकला कि यथार्थत: सामग्री न तो सुख का कारण है और न दुःख का कारण है, बल्कि अन्दर में होने वाली आकुलता ही दुःख है और उस आकुलता की कमी को लोग सुख मानने लगते हैं, यथार्थत: तो आकुलता का अंशमात्र भी दुःख ही है। अत: जिसको सुखी होना हो उसको आकुलता की उत्पादक इच्छाओं को और इच्छाओं की उत्पादक इस मान्यता को छोड़ना चाहिए कि शरीर ही मैं हूँ और शरीर के जीवन से ही मेरा जीवन है, इस ही से मुझे सुख मिलेगा, ऐसी मेरी मान्यता मिथ्या है।
शंका :- फिर भी वह कहता है कि इन विषयों को भोगने के समय सुख तो लगता है। अत: आप इसको दुःख क्यों कहते हो ?
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