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वस्तु स्वभाव एवं विश्व व्यवस्था ]
[१५ समाधान :- जिसप्रकार १०६ डिग्री बुखारवाला बीमार व्यक्ति बुखार के समय तीव्र आकुलता का अनुभव करता था। उसही को १०२ डिग्री बुखार होने पर कोई पूछता है तो वह कहता है कि अब तो ठीक हूँ क्योंकि १०६ के समय होने वाली आकुलता की अपेक्षा अभी बहुत कम आकुलता रह जाने से वह अपने आपको सुखी मानता है, लेकिन. साथ ही यह भी स्वीकार करता है कि यह भी अभी निकालने योग्य हैं। ठीक उसीप्रकार जब इस जीव को इष्ट सामग्री प्राप्त करने की अथवा अनिष्टता दूर करने की इच्छा उत्पन्न होती है, तभी तो उसकी पूर्ति करने की योजना बनाने में अथवा उसकी पूर्ति के साधनों को जुटाने की व्यग्रता में आकुल-व्याकुल होता है। लेकिन जब भी इस इच्छा की पूर्ति के योग्य साधन मिल जाते हैं, उसके प्राप्त होने के साथ ही वह आकुलता कम होने से उसको ऐसा लगता है कि यह आकुलता की कमी ही सुख है। लेकिन वस्तुत: उसे सुख मिलता नहीं है। अगर एक ही इच्छा खड़ी हो उसकी पूर्ति हो जावे कि जीव फिर अन्य इच्छा उत्पन्न न भी हो तो भी कदाचित् यह मान लिया जावे कि जीव सुखी हो जावेगा लेकिन एक इच्छा पूर्ति के समय अन्य अनेक इच्छाओं के पूर्ति करने की आकुलता तो खड़ी ही है, साथ ही जो सामग्री प्राप्त हुई उसके भोगने सम्बन्धी आकुलता और खड़ी हो गई और भोगने के समय भी उसको बारबार भोगने की, जल्दी-जल्दी भोगने की, अनेक प्रकार से भोगने की, अकेले भोगने की, अपने स्वजनों के साथ भोगने की, लोगों में अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए दुनिया को दिखाकर भोगने की आदि अनेक अनेक प्रकार की आकुलताएँ खड़ी हो जाती हैं। अत: इसको आकुलता से छुटकारा कभी नहीं मिल पाता। लेकिन अनादिकाल के विपरीत मान्यता के कारण वास्तव में दुःख होने पर भी इन आकुलताओं में ही सुख मानकर सारा जीवन इस ही प्रकार बिता देता है, लेकिन सारी जिन्दगी भर के अनेक प्रयासों से भी, कभी इसकी इच्छाओं का एवं उनकी पूर्ति करने के प्रयासों का अन्त नहीं आया, इसलिये वास्तव में दु:खी ही दुःखी बना रहता है।
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