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वस्तु स्वभाव एवं विश्व व्यवस्था ]
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सबकी पूर्ति करना चाहता है । उसमें भी जब सफल नहीं होता तब इतना विह्वल हो जाता है कि नशा करके अचेत होकर पड़ जाता है । कहा भी है कि
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" आशागर्तः प्रतिप्राणी यस्मिन् विश्वामणूपमम् । कस्य किं कियदायाति वृथा तो विषयैषिताः ॥
आत्मानुशासन- ३९
अर्थ
आशारूपी खाड़ा प्रत्येक प्राणी में पाया जाता है । अनन्तानन्त जीव हैं, उन सबके आशा पायी जाती है तथा वह आशारूपी कूप ऐसा है कि ऐसे एक खाड़े में समस्त लोक अणु समान है और लोक तो एक ही है, तो अब यह कहो कि किसको कितना हिस्से में आये ?”
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प्रश्न है कि जिसको इच्छित पर्याप्त सामग्री प्राप्त हो चुकी है, उसको तो भोगने की इच्छा के अतिरिक्त अन्य आकुलता नहीं होनी चाहिए, लेकिन ऐसा भी देखने में नहीं आता, प्राप्त सामग्री को भोगने के साथ-साथ उस सामग्री को बनाये रखने की, भोगने के लिए शरीर व इन्द्रियों को पुष्ट करने की तथा जो उनमें बाधक कारण आ पड़ें तो उनको हटाने नष्ट करने की तीव्र आकुलताएँ निरन्तर बढ़ती ही जाती हैं ।
उपरोक्त आकुलताओं के साथ-साथ ही पर्याप्त सामग्री होने पर भी उनको अनवधिरुप से बढ़ाने की इच्छा इसको और भी ज्यादा आकुलित बनाये रखती है और उन इच्छाओं की पूर्ति के लिये और भी तीव्र आकुलता होती है । क्योंकि अन्य द्रव्य हमारे अनुकूल ही परिणमें, प्रतिकूल नहीं परिणमें- ऐसा जगत में कोई द्रव्य पराधीन तो है नहीं तथा संभव भी नहीं है। अगर ऐसा संभव होना मान भी लिया जावे तो हर एक व्यक्ति की इच्छापूर्ति हो जानी चाहिए, लेकिन ऐसा भी होता नहीं है और हो भी नहीं सकता। जैसे लखपति से करोड़पति बनने की करोड़पति से अरबपति बनने की इच्छा किसको नहीं होती और उस इच्छा की पूर्ति लिये क्या क्या अनीति - अन्याय नहीं करता । उसमें कोई बाधा उपस्थित
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