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________________ १२] [ सुखी होने का उपाय साथ ही अन्य सामग्री प्राप्त करने की आकुलता, इसप्रकार भोगोपभोग सामग्री की उपलब्धि के लिये दौड़-धूप कम होने के बजाय, तीव्रता से बढ़ जाती है। सत्य तो यह है कि इसकी यह मान्यता ही मिथ्या है कि “शरीर ही मैं हूँ, इस ही से मेरा जीवन है" आदि इस मिथ्या मान्यता के कारण ही यह उपरोक्त प्रकार से निरन्तर आकुलित रहता है और सारा जीवन इस ही तरह आकुलता करते-करते नष्ट कर देता है लेकिन फिर भी सुखी होता हुआ देखा नहीं जाता। क्या बाह्य सामग्री के संयोग या वियोग से सुख-दुःख होता है? आज का जगत यह मानने के लिए तैयार नहीं है कि यह आकुलता दुःख है, वरन् यह मानता है कि बाहर के ठाठ-बाटों की प्रचुरता की कमी अर्थात् पाँच इन्द्रिय के विषयों की सामग्री की कमी ही दुःख है तथा प्रचुरता ही सुख है । अत: इस संबंध में भी गहरी गवेषणा आवश्यक है। सर्वप्रथम इस पर विचार करना चाहिए कि जिनके पास पाँचों इन्द्रियों संबंधी आवश्यकता की पूर्ति के साधन पर्याप्त हों एवं शरीर भी परिपुष्ट हो, सभी बाह्य अनुकूलताएँ भी हों तो उन्हें तो पूर्ण सुखी रहना चाहिए ? लेकिन ऐसा देखने में तो नहीं आता। उपरोक्त स्थिति वाले जीव भी आकुलित दुःखी देखे जाते हैं। उन्हें “पहले तो प्राप्त सामग्री को अत्यन्त गृद्धतापूर्वक शीघ्र भोगने की अत्यन्त आकुलता रहती है। क्योंकि पाँचों इन्द्रियों को भोगने योग्य सामाग्री प्राप्त होते हुए भी उन सबको एक साथ भोग नहीं सकता, एक समय एक को ही भोग पाता है। फलत: कभी किसी को, कभी किसी को भोगने के लिए झपट्टे मारता हुआ तीव्र आकुलित होता है और जब एकसाथ इच्छानुसार भोगने की सामर्थ्य नहीं होती तो अनेक मादक पदार्थ शराब आदि पीकर भी उन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001862
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size7 MB
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