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वस्तु स्वभाव एवं विश्व व्यवस्था ]
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आर्थिक क्षमता के अभाव में चोरी, बेईमानी आदि अन्याय करके भी उस आर्थिक बाधा को दर करने के प्रयासों में निरन्तर रत रहता है ।
५. श्रोत्र - कर्ण :- कानों को अनुकूल लगे ऐसे अच्छे-अच्छे गायन आदि प्राप्त करने के साधनों को जुटाने के प्रयासों में रत रहता
है।
इसप्रकार उपरोक्त पाँचों इन्द्रियों का आधारभूत इस शरीर को मानकर तथा यह शरीर मैं हूँ, यह शरीर ही मेरा जीवन है - ऐसा मानकर अथवा यही पक्का विश्वास होने से, एकमात्र इस शरीर की तथा इसके माध्यम से इन पाँचों इन्द्रियों को पुष्ट रखने, सजाने, संवारने के प्रयास ही निरन्तर करता रहता है और उसके कारण निरन्तर आकुलित रहता है I
आकुलता की तीव्रता क्यों होती है ?
आकुलता की तीव्रता, उग्रता क्यों होती हैं- इस संबंध में भी गंभीर मंथन आवश्यक है । सर्वप्रथम इस मान्यता के कारण कि यह शरीर ही मैं हूँ, इसलिये मुझे सुखी होना है तो इसी शरीर की अनुकूलता से मैं सुखी होऊँगा । इसलिये मुझे शरीर तथा इन्द्रियों की अनुकूलता के साधन जुटाने एवं प्रतिकूल कारणों को हटाने के उपाय करना ही चाहिये, इसमें क्या भूल है ? ऐसी मान्यता, विश्वास होने से इनकी पूर्ति के लिये निरन्तर इच्छाएँ उत्पन्न होती रहना स्वाभाविक ही है। अतः इच्छाऍ खड़ी होते ही उनकी पूर्ति करने के लिए अत्यन्त आकुलित हो उठता है और उनकी पूर्ति के प्रयासों के लिए दौड़ने लगता है। जब उन प्रयासों में सफलता प्राप्त नहीं होती है तो अत्यन्त दुःखी होता है एवं तीव्र आकुलित होकर और भी तेज दौड़ने लगता है। पुण्य के योग से कभी उन प्रयासों में सफलता प्राप्त हो जाती है तो उनका उपभोग करने के लिए तीव्र आकुलित हो उठता है। साथ ही अपने प्रयासों की सफलता देखकर, अन्य इच्छाओं की पूर्ति के लिए साधन जुटाने के लिए और भी तीव्रता आ जाती है अर्थात् एक तो प्राप्त सामग्री के भोगने की आकुलता और
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