________________
११०]
। सुखी होने का उपाय आत्मा को रागादि का कर्ता ही नहीं माना जावे तो क्या हानि?
इससे तो आत्मा को भयंकर हानि उत्पन्न हो जाने का मार्ग प्रशस्त हो जावेगा, एवं जिनवाणी के कथनों का दुरुपयोग करने वाला, जिनवाणी का द्वेषी सिद्ध होगा। समयसार कलश २०४ में निम्नप्रकार से कहा है कि :- .
श्लोकार्थ :- “यह आर्हत् मत के अनुयायी अर्थात् जैन भी आत्मा को, सांख्यमतियों की भांति, सर्वथा अकर्ता मत मानो, भेदज्ञान होने से पूर्व उसे सदा निरन्तर कर्ता मानो, और भेदविज्ञान होने के बाद उद्धत ज्ञानधाम ज्ञानमंदिर, ज्ञानप्रकाश में निश्चित इस स्वयंप्रत्यक्ष आत्मा को कर्तृत्व रहित, अचल, एक परम ज्ञाता ही देखो।”
इसी कलश के भावार्थ में भी कहा है कि :
“सांख्यमतियों की भाँति जैन आत्मा को सर्वथा अकर्ता न माने, जब तक स्व-पर का भेदविज्ञान न हो तबा तक तो उसे रागादि का-अपने चेतन रुप भावकों का-कर्ता मानो, और भेदविज्ञान होने के बाद शुद्ध विज्ञानघन, समस्त कर्तृत्व के भाव से रहित, एक ज्ञाता ही मानों। इस प्रकार एक ही आत्मा में कर्तृत्व तथा अकर्तृत्व-ये दोनों भाव विवक्षावश सिद्ध होते हैं। ऐसा स्याद्वाद मत जैनों का है, और वस्तुस्वभाव भी ऐसा ही है, कल्पना नहीं है। ऐसा (स्याद्वादानुसार) मानने से पुरुष को संसार मोक्ष आदि की सिद्धि होती है, और सर्वथा एकान्त मानने से सर्व निश्चय-व्यवहार का लोप होता है ।
उपरोक्त प्रकार से आगम में स्पष्ट उल्लेख होने पर भी इसके विपरीत मानने वाला तो आगम का द्रोही ही माना जावेगा।
दूसरी अपेक्षा लौकिक में भी देखा जावे तो, सारे जगत बुरे भावों के करने को बुरा कहता है और अच्छे भाव करने वाले की प्रशंसा करता है। तो क्या जिनवाणी बुरे भाव करने वाले को, उसका करने वाला नहीं मानने को कहेगी। लौकिक में भी तथा सरकार भी हत्या करने वाले को
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org