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________________ वस्तु स्वभाव एवं विश्व व्यवस्था] [ १०९ ___“श्लोकार्थ :- कर्मबंध को करनेवाला कारण न तो बहुकर्मयोग्य पुद्गलों से भरा हुआ लोक है नचलन स्वरूप कर्म ( अर्थात् मन-वचन - काय रूप) योग है। अनेक प्रकार के करण है और न चेतन- अचेतन का घात है। किन्तु “उपयोगभू” (उपयोगरूपी भूमि) अर्थात् आत्मा रागादि के साथ जो ऐक्य को प्राप्त होता है (वही एकमात्र) रागादिक के साथ एकत्व प्राप्त करना, वही वास्तव में पुरुषों के बंध का कारण है।" उपरोक्त कथनों से भी यह स्पष्ट होता है कि आत्मा ज्ञायकस्वभावी है। स्वतंत्रापूर्वक अपनी ज्ञानपर्याय को करता है, लेकिन कर्मोदय को जानते ही उनमें एकत्व मानकर, अज्ञानी होकर स्वयं ही रागादि उत्पन्न कर लेता है। कलश १६७ की टीका में भी यही कहा है : टीका :- वास्तव में अज्ञानमयभाव में से जो कोई भी भाव होता है वह सब ही अज्ञानमयता का उल्लंघन न करता हुआ अज्ञानमय, ही होता है, इसीलिये अज्ञानियों के सभी भाव अज्ञानमय ही होते हैं और ज्ञानमयभाव में से जो कोई भी भाव होता है, वह सब ही ज्ञानमयता का उल्लंघन न करता हुआ ज्ञानमय ही होता है, इसलिये ज्ञानियों के सब ही भाव ज्ञानमय होते हैं।” उपरोक्त कथनों से स्पष्ट हो जाता है कि आत्मा की रागादि विकारी पर्याय का उत्पादक अन्य कोई नहीं है। आत्मा का मात्र अज्ञान भाव है। लेकिन वह अज्ञान भाव, आत्मा की पर्याय में ही है, अर्थात् क्षणिक और अनित्य है। इसलिये उसका नाश करना भी असंभव और कठिन नहीं है। यह आत्मा जब भी अपनी अज्ञानता को दूर कर देगा, उसी क्षण विकार का अभाव भी हो जावेगा। इसप्रकार मोक्षमार्ग प्रगट करना अत्यन्त सरल और करने योग्य कार्य है और संक्षेप में सारभूत मार्ग भी यही है। और समस्त द्वादशांग का सार भी यही मात्र करने योग्य मार्ग है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001862
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size7 MB
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