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वस्तु स्वभाव एवं विश्व व्यवस्था ]
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ही फाँसी की सजा देती है, किसी अन्य को तो नहीं देती। अतः ऐसी मान्यता कि आत्मा; क्रोधादि भाव जो आत्मा के अहित करने वाले बुरे भाव हैं, उनके करने वाले को उसका फल नहीं भोगना पड़े, ऐसा अन्याय कैसे संभव हो सकता है कदापि नहीं हो सकता । अतः जब तक यथार्थ भेदज्ञान होकर आत्मानुभव उत्पन्न नहीं हो, तब तक आत्मा को उन भावों को करने वाला भी मानना, तथा उनके छोड़ने का उपाय भी करते रहना, यही समीचीन मार्ग है ।
आत्मा को सिद्ध समान मानना अथवा रागद्वेषी मानना ? उपरोक्त स्थिति में आत्मा को सिद्ध समान मानना अथवा रागद्वेषी मानना ? क्योंकि एक ही आत्मा को दो प्रकार का कैसे माना जा सकता है ?
प्रश्न :
उत्तर :जब तक सिद्ध दशा प्राप्त नहीं हो, तब तक वर्तमान में अपने को द्रव्यस्वभाव- त्रिकालीस्वभाव की अपेक्षा तो सिद्ध समान ही मानना चाहिए। क्योंकि अगर सिद्धदशा प्रगट करने की सामर्थ्य वाला मेरे द्रव्य को नहीं माना जावेगा, तो सिद्ध दशा प्राप्त करने का पुरुषार्थ ही संभव नहीं होगा । जैसे कोई भी निर्धन व्यक्ति, धनवान बनने के लिये, पहले उसी काम के लिये पुरुषार्थ करता है, जिसमें उसे पूर्ण विश्वास हो कि मैं इस काम के करने में अवश्य सफलता प्राप्त करूँगा । जब तक उसको अपनी सामर्थ्य का पूर्ण विश्वास नहीं होगा, तब तक वह उस कार्य करने का पुरुषार्थ ही प्रारम्भ नहीं करेगा ।
उसीप्रकार वर्तमान में विकारी आत्मा को जब तक अपनी इस सामर्थ्य का विश्वास नहीं होगा कि मेरे में अर्थात् मेरे द्रव्य में सिद्ध भगवान बनने की सामर्थ्य है और वर्तमान की क्रोधी, मानी, मायावी आदि दशा तो क्षणिक पर्यायें हैं, वे नाश हो सकती हैं । अतः इनके होते हुए भी, मैं इस दशा को समाप्त करके, सिद्ध भगवान अवश्य बन सकूँगा, क्योंकि मैं तो अविनाशी हूँ । जब तक यह विश्वास जाग्रत नहीं होगा
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