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वस्तु स्वभाव एवं विश्व व्यवस्था ]
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है। उसमें, सम्यक्दर्शन तो जीवादि पदार्थों के श्रद्धानस्वभावरूप ज्ञान का होना परिणमन करना है, जीवादि पदार्थों के ज्ञान स्वभावरूप ज्ञान का होना - परिणमन करना ज्ञान है, रागादि के त्यागस्वभावरूप ज्ञान का होना - परिणमन करना सो चारित्र है । अतः इसप्रकार सम्यकदर्शनज्ञान- चारित्र तीनों एक ज्ञान का ही भवन परिणमन है । इसलिये ज्ञान ही परमार्थ (वास्तविक ) मोक्ष का कारण है । ”
इसप्रकार सभी तत्त्वों में सारभूत तो एक अपने त्रिकाली ज्ञायक स्वभावी आत्मा को अस्तिरूप से 'अहं रूप' जानना और पहिचानना है । बाकी सभी तत्त्वों की मेरे ज्ञायक स्वभावी आत्मा में नास्ति है; इसलिये वे पर हैं । अतः ऐसी श्रद्धा जाग्रत करना ही यथार्थ तत्त्व निर्णय है और यही तत्व निर्णय करने का अभिप्राय है तथा यही आत्मा को करने योग्य यर्थाथ पुरुषार्थ है । समस्त जिनवाणी इस एक की सिद्धि करने का उपाय ही बताती है । अर्थात् समस्त जिनवाणी का सार एकमात्र यही है। इसलिये उपरोक्त निर्णय पर पँहुचने के लिये जिनवाणी के अध्ययन द्वारा तत्व निर्णय करने की प्रेरणा देते हुए पं. टोडरमलजी ने मोक्षमार्ग प्रकाशक द्वारा तत्व निर्णय पर ही विशेष बल दिया है
जिनवाणी में आत्मा को कर्ता भी कहा है, वह कैसे ?
आत्मा का स्वभाव तो ज्ञायक - अकर्ता ही है । अतः वास्तव में तो आत्मा अपने स्वभाव को ही करने वाला है अर्थात् करता है। लेकिन विकारी पर्याय भी इस आत्मा की ही तो हैं। अतः इन पर्यायों को भी करने वाला अन्य तो कोई हो नहीं सकता। इसलिये आत्मा की ही पर्यायें होने से इनका भी कर्ता आत्मा को व्यवहार से कहा गया है । ये विकारी पर्यायें स्वाभाविक नहीं होने से, तथा इस विकार का जन्म ही अज्ञानदशा अर्थात् मिथ्या मान्यता रहने तक ही होता है, इन्हीं सब कारणों से इनका कर्तापना व्यवहार से है। इस अपेक्षा जिनवाणी का आत्मा को रागादि का भी व्यवहार में कर्ता कहना परमसत्य है और हमारी आत्मा की शुद्धि
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