SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 106
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०४] [ सुखी होने का उपाय इन्हीं में गर्भित हैं। ये सब तो आत्मा की पर्याय होते हुए भी अभाव करने योग्य ही हैं तथा संवर और निर्जरा दोनों तत्त्व भी आत्मा की ही पर्यायें है लेकिन वे प्रगट करने के लिए कथचित् उपादेय हैं। मोक्ष तत्त्व भी आत्मा की ही पर्याय है, लेकिन पूर्णशुद्ध होने के कारण प्रगट करने के लिए पूर्ण उपादेय है। वास्तव में पर्याय तो अनित्य स्वभावी होने से ध्येय नहीं है। ध्येय तो एकमात्र त्रैकालिक नित्य स्वभावी, अविनाशी, त्रैकालिक, पर एवं पर्यायों से भिन्न, अकर्ता-ज्ञायकस्वभावी आत्मतत्त्व अर्थात् जीवतत्तव है। क्योंकि सिद्धभगवान बनना ही मेरा ध्येय है । सिद्धभगवान की पर्याय ने भी, त्रिकाली ज्ञायकस्वभावी आत्मतत्त्व का आश्रय किया, इससे ही वह भी पवित्र हुई है। इसलिए मेरा जीवतत्त्व तो ज्ञेय भी है और ध्येय भी है। उस ही का आश्रय करने से अर्थात् अनुसरण करने से मेरा भी आत्मा पवित्रता को प्राप्त हो सकता है। इसलिये परम उपादेय भी वही है। अजीव तत्त्व तो न तो हेय ही है और न उपादेय ही और अचेतन होने से किसी भी प्रकार से ध्येय तो हो ही नहीं सकता। उनका भी अस्तित्व है इसलिये वे तो मात्र उपेक्षित रूप से जान लेने योग्य हैं। उनसे किंचित मात्र भी संबंध बनाया तो वे मात्र राग-द्वेष आस्रव-वंध के उत्पादक बन जावेंगे। इसलिये उनको तो माध्यस्थभाव से मात्र उपेक्षित रूप से जान लेने योग्य ही हैं। इसप्रकार सातों अथवा नवों तत्त्वों में अकर्ता ज्ञायकस्वभावी आत्मा “मैं” हूँ; यही तो समझना है । इसलिये तत्त्व निर्णय रूप अभ्यास का अर्थ अपने त्रैकालिक अकर्ताज्ञायकस्वभावी आत्मा को समझना ही है। समयसार की गाथा १५५ की टीका में भी इस विषय का समर्थन इसप्रकार किया है : टीका :- "मोक्ष का कारण वास्तव में सम्यक्दर्शन-ज्ञान-चारित्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001862
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy