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________________ १०६ ] [ सुखी होने का उपाय के लिये प्रयोजनभूत भी है। ऐसा ही निम्न कथनों से सिद्ध होता है। पंचास्तिकाय गाथा ६२ की टीका में भावार्थ में कहा भी है कि “इसप्रकार पुद्गल को कर्मोदयादिरूप से या कर्मबंधादिरूप से परिणमित होने की क्रिया में वास्तव में पुद्गल ही स्वयमेव छह कारक रूप से वर्तता है, इसलिये उसे अन्य कारको की अपेक्षा नहीं है। तथा जीव की औदयिकादिभाव रूप से परिणमित होने की क्रिया में वास्तव में जीव स्वयं ही छहकारक रूप से वर्तता है, इसलिये उसे अन्य कारकों की अपेक्षा नहीं है। पुद्गलिक क्रिया में वर्तते हुए पुद्गल के छह कारक जीवकारकों से बिल्कुल भिन्न और निरपेक्ष हैं तथा जीवभावरूप क्रिया में वर्तते हुए जीव के छह कारक पुद्गल कारकों से बिल्कुल भिन्न और निरपेक्ष हैं। वास्तव में किसी द्रव्य के कारकों को किसी अन्य द्रव्य के कारकों की अपेक्षा नहीं होती।” इसीप्रकार प्रवचनसार की गाथा १८९ की टीका में भी अपने विकारी भाव का जीव निश्चय से कर्ता निम्नप्रकार बताया है : “रागादि परिणाम ही आत्मा का कर्म है, वही पुण्य-पाप रूप द्वैत है, आत्मा राग परिणाम का ही कर्ता है, उसी का ग्रहण करने वाला है और उसी का त्याग करने वाला है— यह शुद्ध द्रव्य निरूपणस्वरूप निश्चयनय उपरोक्त सभी कारणों से आगम में इन विकारी भावों को आत्मा के ही "भावकर्म” कहा जाता है। कर्मशब्द का अर्थ ही होता है कार्य, ये आत्मा के ही अपनी पर्याय में किये हुए भाव हैं। अत: इनको आत्मा के ही भावकर्म कहा गया है। आत्मा त्रिकाली अस्तित्व वाला पदार्थ है तो त्रिकाली अस्तित्व रखने वाला जो ज्ञायक भाव है, वह ही आत्मा का स्वाभाविक भाव है। इसलिये आत्मा उसका कर्ता तो निश्चय से अर्थात् वास्तव में है। लेकिन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001862
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size7 MB
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